मुंबई। कोविड महामारी का भयानक मंजर, सड़कों पर चीखती-दौड़ती एम्बुलेंस, डेड बॉडीज से पटे अस्पताल। जब अपने भी शवों को अपनाने से इंकार करते थे। उस दौर में मुंबई के रहने वाले मो. इकबाल ममदानी शवों के 'मुक्तिदाता' बनकर सामने आएं। कोविड काल में अपनी टीम की मदद से लगभग 2000 शवों का अंतिम संस्कार किया। अब मुंबई में लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करते हैं। माई नेशन हिंदी से बात करते हुए मो. इकबाल ममदानी कहते हैं कि अपनी टीम की मदद से अब तक 5000 डेड बॉडीज का क्रिमिनेशन कर चुके हैं। हर महीने 100 से 125 लावारिश लाशों को अंतिम विदाई देते हैं। 

...जब अपने ही डेड बॉडीज को छूने से कर रहे थे इंकार

साल 2020 में आई कोविड महामारी ने मौत का तांडव मचा रखा था। हर शख्स डर के साये में जी रहा था। मौत की खबर आते ही मोहल्लों में हाहाकार मच जाता था। उसी दरम्यान मुंबई के मालवाणी इलाके में कोविड से पहली मौत की खबर आई। डर का मंजर ऐसा था कि अपनों ने भी लाश के अंतिम संस्कार से इंकार कर दिया। नगर पालिका ने शव का दाह संस्कार किया। पता चला कि मरने वाला शख्स मुस्लिम था। रीति रिवाजों के अनुसार, उसे दफनाया जाना था तो मुस्लिम और क्रिश्चियन समाज ने हंगामा खड़ा कर दिया। बहरहाल, फिर सरकार ने कोरोना से हुई मौतों के अंतिम संस्कार के सिलसिले में जारी सर्कुलर में संसोधन किया। 

पहले मुस्लिम और फिर हिंदू शवों का करने लगे अंतिम संस्कार

मो. इकबाल मदनानी कहते हैं कि ऐसे परिस्थिति में सोचा कि जब इंसानियत मर चुकी है। अपने ही अपनों के शवों को छूने से इंकार कर रहे हैं तो क्यों न ऐसे लोगों के अंतिम संस्कार का काम शुरु किया जाए। शुरुआत में 7 लोगों ने मिलकर काम शुरु किया था। 20 से 22 दिनों में करीबन 200 लोगों की टीम बन गई। हम लोग मुस्लिम बॉडीज के अंतिम संस्कार का काम करने लगे। पर अस्पतालों में देखा कि लोग डेड बॉडीज को हाथ तक नहीं लगा रहे हैं तो हिंदू बॉडीज के अंतिम संस्कार का भी काम शुरु कर दिया। पूरे कोविड काल के दौरान लगभग 2000 शवों का अंतिम संस्कार किया। 

आसान नहीं था ये काम, क्या-क्या मुश्किलें झेली

मो. इकबाल ममदानी को पत्नी और मां का सपोर्ट मिला। उन्होंने कहा कि घर में बैठकर मरने से अच्छा है कि काम करके मरो। पर उस दौर में कब्रिस्तान या शमशान घाट तक डेड बॉडीज ले जाने के लिए कोई एम्बुलेंस तक देने को तैयार नहीं हो रहा था। ममदानी कहते हैं कि मुझे पता लगा कि अस्पतालों में कोविड डेड बॉडीज बढ़ती जा रही हैं। एम्बूलेंस की कमी थी। रेंट पर एम्बुलेंस लेने की बात की तो लोगों ने देने से मना कर दिया। फिर खराब पड़ी 5 एम्बुलेंस अपने लोगों की मदद से मरम्मत कराकर तैयार की। 3 और एम्बुलेंस मिलीं। डेड बॉडी और पेशेंट के लिए इन 8 एम्बुलेंस में से अलग—अलग एम्बूलेंस रखी। इस तरह काम शुरु किया। महीनों अस्पताल, डेड बॉडीज और लाशों के बीच रहें। घर तक जाने का रूटीन बदल गया था। 

 

फिर लावारिश लाशों का करने लगे अंतिम संस्कार

इकबाल ममदानी कहते हैं कि कुछ दोस्तों, पंडितों और श्मशान में काम करने वालों की मदद से  पालघर, ठाणे और नवी मुंबई में भी हिंदू रीति-रिवाज से शवों के अंतिम संस्कार कराएं। प्रशासन की इजाजत के साथ यह सब काम किया गया। उसी दरम्यान हमने देखा कि अस्पतालों में कुछ डेड बॉडीज अनक्लेम रहती थीं। जानकारी करने पर पता चला कि ये लावारिश लाशे हैं। उनको कोई हाथ लगाने वाला नहीं है। मुंबई पुलिस ने हमारे काम को देखते हुए ऐसी लाशों के अंतिम संस्कार की भी अनुमति दी। रेलवे पुलिस को पता चला तो उन्होंने भी बुलाया। इस तरह से लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार का सिलसिला शुरु हुआ।

हर महीने 100-125 लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार

अब कोरोना महामारी का दौर गुजर चुका है। पर इकबाल ममदानी की टीम अब भी मुंबई में हर महीने 100 से 125 लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करती है। उनकी 12 लोगों की टीम में जुड़े हुए दोस्त अलग-अलग धर्म से हैं। शवों का अंतिम संस्कार भी उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ही किया जाता है। उनमें से करीब 80 से 85 फीसदी शव हिंदू धर्म के लोगों के होते हैं। मुंबई और रेलवे पुलिस की तरफ से भी लावारिश लाशें आती हैं। इस सिलसिले में बाकायदा सभी थाना प्रभारियों को नोटिफिकेशन भी जारी किया गया है।

दोस्त-फैमिली मेंबर करते हैं आर्थिक मदद

इकबाल ममदानी की फैमिली ने वर्षों पहले ममदानी हेल्थ एंड एजुकेशन ट्रस्ट बनाया था, जो कोरोना काल के समय एक्टिव हुआ। उसी ट्रस्ट के बैनर तले ममदानी की टीम अंतिम संस्कार का काम कर रही है। उसमें आने वाला खर्च फैमिली मेंबर, दोस्त वगैरह मिलकर उठाते हैं। ममदानी कहते हैं कि एंबुलेंस में काम करने वालों को सैलरी देने में परेशानी होती है। प्रयास है कि ममदानी हेल्थ एंड एजुकेशन ट्रस्ट की वेबसाइट बनाकर आम लोगों से इस काम के लिए सहायता ली जाए।

सम्मान के साथ मृतक को पहुंचाते हैं 'मुक्तिधाम'

ममदानी कहते हैं कि अंतिम संस्कार सम्मान के साथ समय से हो। मृतक हमारे समाज का ही अहम हिस्सा था। हम सम्मान के साथ उन्हें मुक्तिधाम तक पहुंचाते हैं। ताकि उनकी आगे की यात्रा में कोई अड़चन न आए। कई लावारिश लाशों के अंतिम संस्कार के बाद उनके परिवार को इसकी जानकारी होती है, तो वह मिलने आते हैं। 

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