मुंबई। खुद के खर्चे से सड़क पर भूखे और घायल पड़े बेजुबानों की वर्षों से सेवा। यहां तक कि बेजुबानों को जीवन देने के लिए घर तक बेचना पड़ा। आज मिलिए मुंबई के नायगांव इलाके की रहने वाली हरसिमरन वालिया से। कम उम्र में ही उनके अंदर जानवरों के प्रति इतनी हमदर्दी थी कि वह सड़कों पर रहने वाले डॉग्स को खाना खिलाती थीं। माई नेशन हिंदी से बात करते हुए हरसिमरन वालिया कहती हैं कि 15 साल से डॉग्स की रिहैबिलिटेशन का काम कर रही हूॅं। उस समय 2nd क्लास में थी। ऐसे ही डॉग्स को खाना देते-देते समझ में आ गया कि उनको भी हमारी तरह भूख-प्यास लगती है। खाना देते-देते उनका ट्रीटमेंट शुरु कर दिया। 

नाना-नानी नहीं रहें, पर डॉग्स को खाना देने का सिलसिला नहीं टूटा

हरसिमरन वालिया कहती हैं कि डॉग्स की वजह से हर जगह से लोग हमें भगा देते थे। कुछ न कुछ प्रॉब्लम करते थे। कभी हमारी गाड़ियां तोड़ देते थे, क्योंकि हम कुत्तों को खाना डालते हैं। मरे हुए कुत्ते को यह कहते हुए हमारे घर के बाहर खींचकर डाल देते थे कि हम लोग गंदगी करते हैं, जबकि ऐसा नहीं था। हरसिमरन वालिया आज भी डेली रात में 11 बजे डॉग्स को खाना डालने जाती हैं। डेली अपनी स्कूटी पर आगे की तरफ कैन में 50-60 किलो खाना रखकर निकलती हैं और डॉग्स को खिलाती हैं। उनके नाना और नानी का भी देहांत हुआ। पर उस दिन भी हरसिमरन ने डॉग्स को बिना खाना खिलाए नहीं छोड़ा। 

 

डॉग्स की संख्या बढ़ी तो बेचना पड़ा घर

जब समय के साथ डॉग्स की संख्या बढ़ने लगी तो सोसाइटी में उन्हें लाने की परमिशन नहीं मिली। हरसिमरन और उनके परिवार ने अपना घर बेचकर शहर से दूर घर लिया और बेजुबानों की देखभाल कर रही हैं। हरसिमरन कहती हैं कि सोसाइटी में लोग इसे स्वीकार नहीं करते हैं। कहते हैं कि आप इतने डॉग्स क्यों रख रहे हो? खाना क्यों दे रहे हो? तो हमने अपना शेल्टर होम खोल दिया। कोविड के पहले साल 2019 में अमन रिहैबिलिटेशन फाउंडेशन रजिस्टर्ड कराया। ताकि यह काम और बेहतर ढंग से हो सके। 

शेल्टर होम में 120 डॉग्स, नसबंदी-वैक्सीनेशन के बाद छोड़ती हैं डाग

हरसिमरन कहती हैं कि अभी भी हम ऐसे प्लॉट पर रहते हैं, जहां लाइट नहीं है। प्रॉपर पानी नहीं है। हम लोग पीने के पानी का कैन खरीदते हैं। लोग नाक बंद करके साइड से निकलते हैं। पर उससे हमें फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि हम पॉजिटिव काम कर रहे हैं। अभी उनके शेल्टर होम में 120 डॉग्स हैं। वह घायल डॉग्स की नसबंदी और वैक्सीनेशन कराकर उन्हें छोड़ती हैं, जो डॉग्स अंधे या पैरालाइज हो गए हैं। वह उनके शेल्टर होम में ही रहते हैं। 

हरसिमरन और परिवार उठाता है खर्च, फंड अपील भी

डॉग्स को खाना खिलाने और इलाज का खर्च हरसिमरन और उनके परिवार द्वारा ही उठाया जाता है। फंड अपील के जरिए भी उन्हें कुछ मदद मिलती है। हरसिमरन कहती हैं कि फंड अपील करती हूॅं। फंड आते हैं कि नहीं आते हैं। डॉक्टर भी अपनी फीस का इंतजार कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि मैं कहीं भागूंगी नहीं। सब ऐसे ही चल रहा है। 

हरसिमरन को कुत्ते ने काटा, रिकवरी में लगें थे तीन महीने 

हरसिमरन वालिया के लिए यह काम व्यक्तिगत तौर पर भी आसान नहीं था। बोर्ड एग्जाम के समय उन्हें डॉग्स ने मुंह पर काटा था। वह मास्क लगाकर एग्जाम देने जाती थीं। रिकवरी में 3 महीने लगे। तब उनकी मम्मी ने कहा कि अब ये काम नहीं करना है। हरसिमरन कहती हैं कि भौंकना उनकी भाषा है। हम इतनी भाषा सीखते हैं तो क्या प्यार की भाषा नहीं सीखेंगे। मैं एक पॉजिटिव काम कर रही थी तो मेरे पैरेंट्स मान गए। सोसाइटी, परिवार व अलग-अलग विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हरसिमरन वालिया ने हिम्मत नहीं हारी। वह आज भी डटी हुई हैं और किसी की परवाह किए बिना बेजुबानों की सेवा में जुटी हैं। 

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