11 मई 1857 को दिल्ली में शुरू हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी हरियाणा के हिसार और हांसी भी पहुंची थी। हांसी में अंग्रेजों की छावनी होती थी। 1857 की 29 मई को मंगल पांडे के विरोध का साथ देते हुए रोहणात गांव के स्वामी बरण दास बैरागी, रूपा खाती और नौंदा जाट सहित हिंदू-मुस्लिम एकत्रित होकर हांसी आ गए। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष पर उतारू सैनानियों के साथ रोहणात के ग्रामीणों ने भी अंग्रेजों पर हमला बोला। 


हमले में अंग्रेजी हुकूमत के अफसर सहित 11 अंग्रेज मारे गए। हिसार में भी 12 अफसर मारे गए। क्रांतिकारियों ने हिसार, हांसी में सरकारी खजाना भी लूटा और जेल में बंद भारतीय कैदियों को रिहा करवा दिया। 


इसके बाद शुरू हुआ अंग्रेजों का जुल्मों-सितम। इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली वो तारीख थी 29 मई 1857, भारत में स्वाधीनता के लिए पहला संघर्ष चरम पर था।
रोहणात गांव में ब्रिटिश फौज बर्बरता को अंजाम देने के लिए घुस गई। अपनी बेइज्ती का बदला लेने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के घुड़सवार सैनिकों ने पूरे गांव को नष्ट कर दिया।
अंग्रेजी फौज को कत्लेआम मचाता देख लोग गांव छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए और पीछे रह गई वो लहू-लुहान धरती जिस पर दशकों तक कोई आबादी नहीं बसी। 


मामला जब अंग्रेजों के आला-अफसरों तक पहुंची तो उन्होंने विरोध की चिंगारी दबाने के लिए अपनी सबसे खतरनाक माने जाने वाली पलटन-14 को भेजा। अंग्रेजों ने तोपें लगवाकर रोहणात पर हमला बोला। इसके अलावा अन्य गांवों को भी आग लगा दी गई। रो रोहणात पर हुए सितम में सैकड़ों लोग मारे गए। क्रांतिकारी बिरड़ दास बैरागी को तोप पर बांध कर उनके चिथड़े उड़ाए दिए गए।
अंग्रेजी फौज की टुकड़ी ने रोहनात गांव को तबाह कर दिया। जालिमों ने निर्दोष लोगों को पकड़ा, पीने का पानी लेने से रोकने के लिए एक कुएं के मुंह को मिट्टी से ढक दिया और लोगों को फांसी पर लटका दिया।


डेढ़ सौ साल बीत जाने के बाद आज भी गांव उस सदमे से उबर नहीं सका। गांव के बुजुर्ग कुएं को देख कर उस डरावनी कहानी को याद करते हैं। गांव के घरों को तबाह करने के लिए आठ तोपों से गोले बरसाए गए थे। इस डर से औरतें और बच्चे बुजुर्गों को छोड़ कर गांव से भाग गए थे।


अंधाधुंध दागे गए गोलों की वजह से लगभग 100 लोग मारे गए थे। पकड़े गए लोगों को बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई। ब्रिटिश अधिकारियों को मारने के आरोप में कइयों को तोप से बांध कर उड़ा दिया गया। इस घटना के महीनों बाद तक यहां कोई इंसान नजर नहीं आया।


पकड़े गए कुछ लोगों को हिसार ले जा कर बर्बर तरीके से एक बड़े रोड रोलर के नीचे कुचल दिया गया, ताकि भविष्य में ये बागियों के लिए सबक बने। जिस सड़क पर इस क्रूरता को अंजाम दिया गया उसे बाद में लाल सड़क का नाम दिया गया।

अंग्रेजों के बर्बर दमन चक्र को झेल चुके इस गांव के लोगों की मांगों को मानने के लिए प्रदेश की सरकारों के लिए सात दशकों का समय भी कम साबित हुआ। गांव वाले खेती के लिए जमीनें और आर्थिक मुआवजे की मांग कर रहे थे। सालों पहले जो थोड़ा बहुत आर्थिक मुआवजे की घोषणा की गई थी वो भी नहीं दी गई थी।


नीलामी के दंश को आज भी क्रांतिकारियों के वंशज झेल रहे हैं। ग्रामीणों को यही मलाल है कि 1857 से लेकर अब तक 161 साल गुजरने को हैं। जिनमें से 72 साल आज़ाद भारत के स्वर्ण युग के हैं मगर बावजूद इसके उन क्रांतिकारियों के परिजनों को उनकी नीलाम हुई न तो ज़मीन दिलवाई गई और न ही अब तक की सरकारों ने उनकी कोई सुध ली, हालांकि खट्टर गांव वालों से कई वायदे तो करके गए थे। खुद को लगातार गुलाम मान रहे इस गांव के लोगों में उम्मीद जगी थी। और उन्ही के आश्वासन और सरकार द्वारा वीर सपूतों के इस गांव वालों की मांग माने जाने के बाद आजादी के 72वें सालगिरह पर उन्होंने गांव में तिंरगा लहराया है।


गांव में पहली बार जश्न-ए-आजादी पर गांव की सबसे पढी लिखी बेटी अनामीका ने झंडा फहराया। अनामीका एम.टैक कर चैन्नई में इंकम टैक्स एसिस्टेंट की पोस्ट पर कार्यरत है। अनामीका ने बताया कि पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराया जाता था तो वो केवल टीवी या अखबार में ही जश्न की तस्वीरें देख पाती थी। अनामीका ने कहा कि आज अपने गांव में ये जश्न और खुद राष्ट्रीय ध्वज फहराने का गौरव पाकर बहुत खुशी मिली। वहीं अन्य बच्चे की भी यही कहानी है। बच्चों ने अपने गांव में आजादी का जश्न पहली बार होता देख खुशी जाहिर की।