लोकसभा चुनाव 2019 के प्रचार के  दौरान कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने कई बार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चुनौती भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दी. हालांकि प्रियंका ने इस चुनौती से खुद पल्ला झाड लिया और कांग्रेस पार्टी उन्हें उम्मीदवार के तौर पर प्रधानमंत्री के खिलाफ मैदान में नहीं उतार रही है. लेकिन प्रियंका की इन चुनौतियों ने कांग्रेस को अधिक नुकसान पहुंचाने का काम किया है.

गुरुवार को सभी प्रियंका गांधी को वाराणसी  से उतारने के सभी कयासों को खत्म करते हुए कांग्रेस ने अजय राय के तौर पर अपने उम्मीदवार का ऐलान किया. अजय राय को 2014 के चुनावों में मोदी के खिलाफ लगभग 5 लाख कम वोट मिले. हालांकि कांग्रेस पार्टी ने वाराणसी में प्रियंका का दांव खेलकर कोशिश की कि मोदी के चुनाव प्रचार को कमजोर किया जाए. इस कोशिश से कांग्रेस ने उम्मीद लगाई कि जब देशभर के टेलीवीजन चैनल और सोशल मीडिया प्रधानमंत्री मोदी के रोडशो पर फोकस करेगा, प्रियंका गांधी का नाम बतौर विकल्प लिया जाएगा.

क्या कांग्रेस की यह रणनीति काम आई? या फिर कांग्रेस इन सभी कयासों को मीडिया के दिमाग की उपज ही कहेगा? लेकिन जानना यह जरूरी है कि इस रणनीति से कांग्रेस पार्टी को क्या नफा नुकसान पहुंचा?

1.    कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा

कांग्रेस की प्रियंका पर रणनीति का सीधा असर न सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर पड़ा जिसके लिए प्रियंका सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं. बल्कि इससे पूरे देश में कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया. हालांकि कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मानना था कि मोदी के  खिलाफ प्रियंका गांधी चुनाव नहीं जीत पाएंगी लेकिन इस हार से वह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के महागठबंधन की राज्यव्यापी हवा निकाल देंगे. वहीं कार्यकर्ताओं का यह भी मानना था कि मोदी के सामने प्रियंका की हार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पुनर्जन्म का कारण बन सकता है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और कार्यकर्ता सिर्फ हताश हैं.

2.    भाई भी मैदान छोड़कर चला गया

खासबात है कि सिर्फ प्रियंका गांधी ही नहीं उनके भाई और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ने का काम चुनाव प्रचार की शुरुआत से किया. पहला, राहुल गांधी ने अपने गढ़ अमेठी में बीजेपी नेता और केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की चुनौती में प्रासंगिकता गंवा दी. स्मृति का मुकाबल कर एक बार फिर अमेठी को कांग्रेस के नाम दर्ज कराने में उनका प्रचार कमजोर पड़ गया और मजबूरी में उन्हें एक  सुरक्षित समझी जानें वाली वायनाड सीट से भी खुद को उम्मीदवार बना दिया. इस कदम से पार्टी कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संकेत मिला कि पार्टी अध्यक्ष अपने गढ़ में बीजेपी के सामने सुरक्षित नहीं हैं.

3.    धूमिल हो गई प्रियंका की छवि

राजनीति पूरी तरह से अनुभव का खेल है. पहले प्रियंका के नाम पर चमत्कार करने का दावा और फिर मैदान में उतरने से कतराने से प्रियंका के तिलिस्म को नुकसान पहुंचा है. गौरतलब है कि कांग्रेस पार्टी लंबे समय से प्रियंका को मैदान में उतारकर राजनीतिक उलटफेर करने पर भरोसा करती थी. प्रियंका पर इस रणनीति ने पार्टी के इस भरोसे को हमेशा के लिए तोड़ दिया है.  उत्तर प्रदेश में टीवी चैनल या सोशल मीडिया पर यही चिल्लाया जा रहा है- प्रियंका आए या कोई आए, जीतेगा मोदी ही। इसने भी प्रियंका की छवि को धूमिल करने का काम किया है.

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4.    डुबकी लगाने का मौका गंवाया

देश में वाराणसी या बनारस में चुनावी खेल भी गंगा में डुबकी लगाने जैसा है। प्रियंका ने चुनाव से पहले इच्छा जाहिर की कि इस चुनावी कुंभ में वह काशी की पावन धरती से राजनीतिक डुबकी लगाएंगी. इस डुबकी से प्रियंका कांग्रेस की उस छवि को कुछ हद तक साफ कर सकती थी जिससे मुताबिक कांग्रेस को हिंदू विरोधी और मुसलमानों की पैरवी करने वाली पार्टी कहा जाता है. लिहाजा, यहां से मैदान में उतरकर प्रियंका गंगा आरती और मंदिरों का दर्शन कर अपने लिए सशक्त नेता की छवि तैयार कर सकती थीं. लेकिन प्रियंका ने इस चुनावी कुंभ में डुबकी लगाने के इस मौके को गंवा दिया.

5.    क्या भाई-बहन में संग्राम है वजह?

अंत में प्रियंका का वाराणसी से चुनाव न लड़ने का फैसला एक और सवाल खड़ा करेगा। क्या प्रियंका गांधी को प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ मैदान में इसलिए नहीं उतारा गया कि इससे राहुल गांधी के लिए चुनौती खड़ी हो जाती. क्या कांग्रेस का मानना है कि प्रियंका और मोदी के बीच चुनाव करा वह राहुल गांधी को बीच प्रचार में हाशिए पर ढकेलने जैसा होगा। हालांकि सवाल यह भी था कि क्या वाराणसी में मोदी बनाम प्रियंका होने पर कांग्रेस के कार्यकर्ता प्रियंका को अधिक तरजीह देने लगते?

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