लखनऊ।

लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद सभी पार्टियों के टिकट दावेदारों में हलचल बढ़ गयी है। वहीं प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी (सपा ) में हालात कुछ ठीक नहीं दिख रहे हैं। उसको इस बार अपने गढ़ में अपने यादव कुनबे के लोगों से चुनौती मिलती दिख रही है। आगामी चुनाव में यादव परिवार के अपने गढ़ मैनपुरी, फ़िरोज़ाबाद और इटावा तक में उसके करीबी ही सपा के खिलाफ ताल ठोकते नजर आ रहे हैं।

बता दें कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के साथ लोकसभा चुनाव 2019 के लिए गठबंधन के तहत सपा के कोटे में 37 सीटें आयीं हैं, वहीं बसपा को 38 सीटें और आरएलडी को 3 सीटें मिली हैं। अभी तक सपा ने अपने कोटे से 11 उम्मीदवारों के नामों की 3 लिस्ट जारी की है। लेकिन उसके अपने गृह क्षेत्र और यादव परिवार के गढ़ इटावा, फ़िरोज़ाबाद और मैनपुरी  जहां से सपा के संरक्षक मुलायाम सिंह यादव चुनाव लड़ने जा रहे हैं, वहाँ भी उनके लिए परिस्थितियाँ कठिन होती जा रही हैं।

इन सबके पीछे कार्यकर्ताओं का गठबंधन के प्रति असंतोष तथा मौजूदा प्रदेश नेत्रत्व में उनकी बढ़ती हुई अनदेखी भी एक कारण है। इसका एक ताज़ा उदाहरण है, जब चुनाव तारीखों के ऐलान से ठीक पहले, सपा प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने मैनपुरी की 51 सदस्यीय जिला इकाई को भंग कर दिया था, जिससे वहाँ के कार्यकर्ताओं मे काफी रोष है। उसके बाद इस सीट पर मौजूदा सांसद तेज प्रताप सिंह यादव जो मुलायम के पोते हैं, उनको इस सीट से टिकट न मिलने से उनके समर्थकों ने अपनी ही पार्टी के नेताओं के खिलाफ, जिला पार्टी दफ्तर पर नारेबाजी करते हुए अखिलेश और रामगोपाल यादव मुर्दाबाद के नारे लगाये।

दूसरी ओर शिवपाल यादव ने अपनी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया (पीएसपीएल) के बैनर तले फ़िरोज़ाबाद सीट से रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव के खिलाफ मैदान में उतरकर इसको अपनी प्रतिष्टा का प्रश्न बना दिया है। जबकि फ़िरोज़ाबाद से मुलायम के करीबी और विश्वासपात्र, सिरसागंज से पार्टी विधायक, हरिओम यादव द्वारा शिवपाल के समर्थन के ऐलान के बाद इस सीट पर वर्तमान सांसद अक्षय यादव की मुश्किलें और बढ़ गयी हैं। इन सबके कारण समाजवादी पार्टी को अपने घर में भी अपनी स्थिति डामाडोल नजर आ रही है। वहीं परिवार के गढ़ इटावा की दूसरी सीट पर शिवपाल के उम्मीदवार उतारने से सपा उम्मीदवार कमलेश कठेरिया के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है।

बदायूं में भी धर्मेंद्र यादव के लिए मुश्किलें बढ़ गयी हैं जब से कांग्रेस ने चार बार सांसद रह चुके सलीम शेरवानी को वहाँ से उतारा है। जिससे वहाँ के करीब 2 लाख मुस्लिम वोटों में फर्क पड़ सकता है। गौरतलब है कि 2014 लोक सभा चुनाव में यूपी में मोदी लहर में जब सभी पार्टियाँ बह गयी थी, तब प्रदेश में केवल यादव परिवार ही यादव बेल्ट और आजमगढ़ के सहारे पाँच सीटें जीत पाने में कामयाब रही थी। हालांकि इस बार सपा का कुनबा अपने ही क्षेत्र में कमजोर नजर आ रहा है।

विरोध और बगावत सपा के लिए नया नहीं है,  2016 के बाद यादव परिवार में सत्ता को लेकर शुरू हुए पारिवारिक झगड़े के बाद से पिछले तीन वर्षों  में आंतरिक विघटन के कारण समाजवादी पार्टी लगातार कमजोर होती जा रही है। इसी का कारण है कि पिछली लोक सभा में पाँच सीटे जीतने के बाद भी सपा को प्रदेश में गठबंधन का सहारा लेना पड़ा और वो अब 80 में से केवल 37 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। वहीं शिवपाल यादव के यूपी में सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने के ऐलान से वो अपनी पूर्व पार्टी सपा को ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते दिख रहे हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, बसपा के खाते में गयी सपा की सीटों पर समाजवादी पार्टी के मजबूत और जिताऊ पूर्व सांसद, क्षेत्र के पदाधिकारी नेता जिनको किसी और जगह से टिकट नहीं मिलेगा, वो सभी अंतिम सूची जारी होने बाद अन्य पार्टियों और खासकर शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया (पीएसपीएल) का रुख कर सकते है। जिसके चलते सपा के वोट बैंक को नुकसान होगा। गौरतलब है कि गठबंधन में दो पार्टियों के शीर्ष नेत्रत्व में तो ताल-मेल नजर आ रहा है , लेकिन जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओ के बीच सामंजस्य कि कमी है।

वहीं शिवपाल के पार्टी में रहने के बावजूद अंतर्कलह के कारण 2017 यूपी विधान सभा चुनाव में सपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था। जबकि इस बार वो यादव बाहुल्य क्षेत्रों में खुलकर प्रभाव डालने की हर संभव कोशिश करेंगे जिससे, ये साबित किया जा सके कि अखिलेश यादव उनके और मुलायाम सिंह यादव के मुक़ाबले एक कमजोर नेता है।