पांच शहरी या फिर यूं कह लीजिए कि सभ्य समाज के बीच रहने वाले नक्सलियों की गिरफ्तारी पर देशभर में कोहराम मचा हुआ है। महाराष्ट्र पुलिस की इस कार्रवाई की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इन शहरी नक्सलियों के समर्थक इनको शिक्षाविद्, समाजसेवी, लेखक बता रहे हैं और समाज की सहानुभूति बटोरने के लिए हर तरह के हथकंडे आजमा रहे हैं। 
इनका प्रोपगैंडा इतना जबरदस्त है, कि आम तौर पर तटस्थ रहने वाले लोग भी इनके झांसे में आते हुए दिख रहे हैं। यहां तक कि सरकार के समर्थक माने जाने वाले ग्रुप भी महाराष्ट्र पुलिस की कार्रवाई का बचाव नहीं कर पा रहे हैं। विपक्ष इसको सरकार के खिलाफ हमले का जबरदस्त हथियार बना चुका है।

उपर से देखा जाए तो यह सभी सूती कुर्ता या साड़ी पहनने वाले बेहद मासूम, सीधे और सरल दिखाई देते हैं। पिछड़े और आदिवासी इलाकों में जनहित के कामों में जुटे रहते हैं, उनसे घुल-मिल कर रहते हैं, उनके पक्ष में लॉबिंग करते हैं। इन सब कामों में उपर से कोई बुराई नहीं दिखती। लेकिन अंदरखाने इनका उद्देश्य क्या है। आखिर किस मकसद से यह लोग विदेशी नागरिकता, अपना फलता-फूलता करियर, सुख सुविधाओं का त्याग करके लगातार गरीबों और पिछड़ों के हितैषी होने का आवरण ओढ़े हुए हैं। 

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें इतिहास की परतें खंगालनी पड़ेंगीं। यह शहरी और जंगली नक्सली दरअसल अपने उस उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं, जिसकी नींव इनके पुरोधाओं ने 1926 में रखी थी। यह है दत्त-ब्रैडले थ्योरी, जिसे दो विदेशी कम्युनिस्टों ने भारत को एक वामपंथी देश बनाने के लिए तैयार किया था। इसमें से एक थे रजनी पाम दत्त, जो कि भारतीय पिता और स्वीडिश मां के बेटे थे और दूसरे थे ब्रिटिश कम्युनिस्ट बेन ब्रैडले, जिन्हें 1920 के दशक में भारत को वामपंथी देश बनाने का जिम्मा सौंपा गया था, जो कि कम्युनिस्ट लोगों का पुराना सपना है।

इन लोगों ने भारतीय जनमानस का लंबे समय तक अध्ययन करके यह पाया, कि कण-कण में आध्यात्मिक चेतना बसाए हुए इस देश में विदेश से आयातित नास्तिक विचारधारा के लिए कोई स्थान नहीं है।

जिसके बाद इन दोनों ने चोर-दरवाजे से भारत की सत्ता पर काबिज होने का मार्ग चुना। इसके लिए एक थ्योरी तैयार की गई, जिसे दत्त-ब्रैडले थ्योरी के नाम से जाना जाता है। जिसके तहत प्लान बनाया गया, कि उस समय के बड़े नेताओं को पर वैचारिक प्रभाव डालकर उनसे अपनी मनमाफिक नीतियां बनवाई जाएं।      

1919 में लेनिन ने रुस पर कब्जे के बाद, उसी तर्ज पर दुनिया भर में कम्युनिस्ट सरकारें बनवाने के लिए “कॉमिन्टर्न” यानी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का गठन किया था। भारत में इस “कॉमिन्टर्न” ने जवाहरलाल नेहरु को अपने पाले में खींचने की कोशिश शुरु कर दी। नेहरु को कॉमिन्टर्न सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया। 1927 में उन्हें सोवियत संघ की यात्रा कराई गई। यहां तक कि नेहरु ने 1929 में एक किताब भी लिख डाली, जिसका नाम था “सोवियत रशिया”। इसमें नेहरु ने वामपंथी शासनपद्धति का जमकर प्रशस्तिगान किया। नेहरु पर अपने पूरे जीवनकाल में वामपंथी विचारों का प्रभाव रहा। जिसे 1962 में चीन से हारने के बाद झटका लगा, जिसने आखिरकार उनकी जान ही ले ली। 

नेहरु के बाद इंदिरा ने भी वैचारिक आधार के लिए वामपंथी विचारकों पर ही भरोसा किया। क्योंकि जब इंदिरा ने सत्ता संभाली तब कांग्रेस में कई शक्तिशाली गुट थे, जिन्हें वह एक एक करके खत्म करती चली गईं। उन्होंने भी जीवन भर सोवियत संघ से नजदीकी रखी और वामपंथी विचारकों की सलाह के मुताबिक शासन चलाया।

थोड़ा बहुत बाहरी अलगाव दिखाने के अलावा कांग्रेस और वामपंथियों का सहयोग अब तक बना हुआ है। हाल ही में दोनों ने बंगाल का चुनाव एक साथ लड़ा। इससे पहले यूपीए-1 की सरकार को भी वामपंथियों का समर्थन हासिल था और इन शहरी नक्सलियों की गिरफ्तारी पर कांग्रेस ने जिस तरह का हंगामा खड़ा कर रखा है, उसके बाद तो कोई संदेह बचता ही नहीं है।   

इतिहास की बातें तो बहुत हो गईं। आइए अब वर्तमान में आते हैं। जहां मूल प्रश्न अब भी कायम है। वह ये है, कि वामपंथी नक्सली प्रधानमंत्री मोदी की हत्या क्यों करना चाहते हैं। इस प्रश्न का उत्तर भी कम्युनिस्ट विचारधारा में छिपा हुआ है।

दरअसल वामपंथ राज्य की अवधारणा में विश्वास ही नहीं करता। यह एक अराजकतावादी विचार है, जो कि लुंज-पुंज, पिछड़े, सुदूरवर्ती इलाकों में अपनी जड़ें मजबूत करता है। यह एक कैंसर की तरह है, जो कि शरीर के कमजोर अंगों पर हमला करके उसपर कब्जा करता है और अपना प्रसार करता है। 

एक मजबूत केन्द्रीय शासन व्यवस्था इन्हें सख्त नापसंद होती है। इसलिए नक्सली अपने इलाकों में विकास का काम नहीं होने देते। जिससे कि पिछड़ेपन का बहाना करके उस इलाके पर अपना कब्जा बरकरार रखा जा सके। 

यही वजह है कि कांग्रेस के शासनकाल में सरकार और व्यवस्था के अंदर घुसे वामपंथी सैन्य बलों को कमजोर करने की साजिश में लगातार लगे रहते हैं। आधुनिक हथियारों की खरीद नहीं होने देते। सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर तरह तरह की बंदिशें लगाते हैं। देश के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सुरक्षा बलों के हाथों नक्सलियों की हत्या होने पर उन्हें अदालत में घसीटकर सजा दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बड़ी डिफेन्स डील को सालों तक लटकाए रहते हैं। 

लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद से इनकी एक नहीं चल रही है। पिछले चार सालों में सैन्य बलों का मनोबल बढ़ा है। मीडिया, साहित्य, थिएटर, फिल्म, सरकार, शिक्षा जैसे क्षेत्रों पर वामपंथियों की पकड़ कमजोर पड़ी है। इनपर सबसे बड़ी चोट तो तब पड़ी, जब सरकार ने इनकी ढाल बने एनजीओ नेटवर्क की फंडिंग पर रोक लगा दी। जिसके बाद से यह सभी बौखलाए हुए हैं। 

दत्त-ब्रैडले ने इन सभी को चोर दरवाजे से सत्ता पर काबिज रहने का जो लक्ष्य दिया था, वह मोदी सरकार आने के बाद हाथ से फिसलता हुआ दिखाई दे रहा है। यह लोग 2014 में एनडीए सरकार आने के बाद से ही प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिशों में लगे हुए हैं। 

नवंबर 2014 में भी नक्सलियों ने उन पर हमले की योजना बनाई थी। लेकिन उनका गुप्त संदेश सुरक्षा बलों द्वारा पकड़ लिए जाने से उनकी योजना विफल हो गई थी। यह लोग प्रधानमंत्री के दंतेवाड़ा दौरे के दौरान उनकी हत्या की साजिश रच रहे थे। जिसका खुलासा होने पर प्रधानमंत्री का दौरा पांच माह आगे बढ़ा दिया गया।

सांकेतिक भाषा में लिखा यह संदेश जिस नक्सली के पास से बरामद हुआ था, वह माओवादी प्रवक्ता गुडासा उसेंडी का करीबी था। उसेंडी ने कुछ समय बाद तेलंगाना पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। 

संदेश में लिखा था, 'लाल सलाम कामरेड! एसएनसी टीम से मिली सूचना के अनुसार मोदी एक से पांच नवंबर के बीच दंतेवाड़ा का दौरा करने वाले हैं। इसलिए आपरेशन ग्रीन हंट में मारे जा चुके सैकड़ों क्रांतिकारियों का बदला लेने का अवसर आ गया है। हमें दबाने वाली सभी शक्तियों का वही हाल होगा, जो महेंद्र कर्मा का हुआ। टेकनर और गामवाड़ा के रास्ते पर प्लाटून तैयार करो। तगड़े असर की तैयारी करनी होगी। क्रांतिकारी संघर्ष जिंदाबाद!' 

जिसके बाद छत्तीसगढ़ में ही अप्रैल 2018 में प्रधानमंत्री मोदी के प्रवास से ठीक चार दिन पहले फिर से उनकी हत्या की साजिश रची गई। लेकिन किस्मत से प्रधानमंत्री की इस यात्रा से पहले ही विस्फोट हो गया। जिसमें डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी) के दो जवान शहीद हुए थे और पांच बुरी तरह घायल हुए थे।

इसके बाद यह तीसरी घटना है, जब प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश की जा रही है। दिल्ली में रोना विलसन के घर से मिली चिट्ठी में एम-4 राइफल और गोलियां खरीदने के लिए आठ करोड़ रुपये की जरूरत की बात लिखी है। साथ ही उसमें 'एक और राजीव गांधी हत्याकांड' की तर्ज पर रोड शो के दौरान मोदी जी की हत्या की साजिश रची जा रही थी। 
और अब जब इन सभी की गिरफ्तारी से इस खतरनाक साजिश पर से पर्दा उठ गया, तो तर्क दिया जा रहा है कि सिर्फ एक चिट्ठी ही तो मिली है। लेकिन यह लोग पुरानी साजिशों की बात छिपा ले जाते हैं।  

दरअसल यह शहरी नक्सली धीमे जहर की तर्ज पर काम करते हैं। इनका शिकार भ्रम में रहता है। उसे पहले इसका असर दिखाई नहीं देता, लेकिन बाद में उसका अंत बेहद बुरा होता है। अभी जो मध्य वर्ग के लोग इन शहरी नक्सलियों को मासूम समझकर इनका समर्थन कर रहे हैं, वह जान लें कि वास्तव में यह नक्सली उनके ही खिलाफ हैं। यह हमारे सालों की मेहनत की कमाई लूट लेना चाहते हैं। हमारे संसाधनों पर कब्जा करना चाहते हैं, जिन्हें हमने और हमारे पुरखों ने बहुत मेहनत से तैयार किया है। यह हमारे बच्चों के हाथ में बंदूक थमाकर उन्हें खूनी संघर्ष में धकेल देने की ख्वाहिश रखते हैं, जिन्हें हम पढ़ा लिखाकर उच्च स्तर का जीवन देना चाहते हैं।

यकीन नहीं होता तो इनका अतीत उठाकर देख लीजिए। जहां भी इनका शासन हुआ वहां इन्होंने यही किया है। इतिहास गवाह है कि दुनिया में सबसे ज्यादा क्रूरताएं और हत्याएं साम्यवादी शासन व्यवस्था के तहत हुई हैं। चाहे वह स्टालिन हो माओ-त्से-तुंग या ह्यूगो शावेज या फिर पोलपोट। इन सभी के हाथ लाखों लोगों के खून से रंगे हुए हैं। यह नक्सली हमारी पवित्र भारत भूमि पर भी अपना खूनी खेल खेलने की साजिश कर रहे हैं। इन्हें कतई क्षमा नहीं मिलनी चाहिए। 

एक सबसे अहम बात और, जो भी लोग सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन शहरी नक्सलियों की नजरबंदी पर जश्न मना रहे हैं और उसे पुलिस की हार करार दे रहे हैं। वह जरा जी.एन. साईंबाबा के उदाहरण पर गौर करें।

इसको 9 मई 2014 को गिरफ्तार किया गया था। उस वक्त भी उसके समर्थन में ऐसा ही कैंपेन चला था। उस समय भी यही तर्क दिए जा रहे थे, कि प्रोफेसर के खिलाफ कोई सबूत नहीं है, व्हीलचेयर पर बैठा आदमी कैसे साजिश रच सकता है, विरोध की आवाज कुचली जा रही है, आपातकाल की स्थिति है। शुरुआत में अदालत ने साईँबाबा के खिलाफ भी थोड़ी नरमी दिखाई थी। लेकिन बाद में देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में उसे उम्रकैद की सजा सुनाई थी। 

हमारे देश में एक मजबूत न्यायिक व्यवस्था है, जो पर्याप्त सबूत मिलने के बाद कड़ी कार्रवाई करने में परहेज नहीं करती। भले ही शुरुआत में अभियुक्तों को संदेह का लाभ मिलता हुआ दिखे। लेकिन जांच एजेंसियों के शिकंजे में आए इन शहरी नक्सली नक्सलियों को अदालत बख्शेगी नहीं।  

यह बात सबके सामने आनी चाहिए, कि यह नक्सली बंदूक की नली और हिंसा के रास्ते से अपना लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में लगे रहते हैं। इनकी लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई आस्था नहीं। आज जब इनकी गर्दनें फंस रही हैं, तब यह सब लोकतंत्र और वैचारिक स्वतंत्रता की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन अगर यह सत्ता में आए तो सबस पहले लोकतंत्र को ही उखाड़ फेकेंगे। हिंसक पशुओं जैसी मानसिकता रखने वाले इन लोगों का ईलाज कड़ी कानूनी कार्रवाई के जरिए ही हो सकता है। वरना यह घाव नासूर बन जाएगा। हिंसा को उकसाना किसी भी तरह से वैचारिक असहमति नहीं कहा जा सकता। इसके खिलाफ घोर असहिष्णुता की नीति धर्मसम्मत भी है और न्यायोचित भी।