नई दिल्ली: ऐसा कौन इंसान होगा जिसे अलीगढ़ के टप्पल थाना क्षेत्र की ढाई वर्ष की मासूम बच्ची के साथ हुई हैवानियत ने अंदर से हिला नहीं दिया होगा। देश जिस ढंग से उबला है और सोशल मीडिया पर करोड़ों प्रतिक्रियाओं के साथ जगह-जगह सड़कों पर लोग पीड़ाजनित आक्रोश प्रकट कर रहे हैं उससे पता चलता है कि इसका कैसा मनोवैज्ञानिक असर है। 

हालांकि देश में एक वर्ग, जो वर्षों से ऐसी घटनाओं पर अपने एक्टिविज्म के लिए जाना जाता रहा है वह लगभग खामोश रहा। जब उनकी लानत मलानत होने लगी कि क्या यह घटना इंसानियत को शर्मसार करने वाली नहीं है तो उनमें से कुछ ने सोशल मीडिया पर निंदा की औपचारिकता पूरी कर दी। 

किंतु कुछ ऐसे भी हैं जो इसका विरोध करने वालों को ही समाज में नफरत फैलाने का दोषी से लेकर सांप्रदायिकता की आग भड़काने और सेक्यूलर ताने-बाने को खत्म करने का आरोप लगा रहे हैं। यह अजीब प्रतिक्रिया है। 

सच कहें तो ऐसी प्रतिक्रियाओं ने ही लोगों के उबाल को परवान चढ़ाया है। किंतु इसकी चर्चा बाद में। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक बच्ची के साथ हैवानियत की सभी हदें पार करने वाले दोनों मुख्य अपराधियों सहित चार लोग पकड़े जा चुके हैं। उन पर योगी आदित्यनाथ सरकार ने रासुका लगाने का आदेश दे दिया। एक विशेष जांच दल यानी सिट का गठन हो चुका है। तो उम्मीद करनी चाहिए कि फास्ट ट्रैक न्यायालय में मामला चलाकर जल्दी ही इन अपराधियों को न्यायालय उचित सजा देगा। 

किंतु यहां मामला खत्म नहीं होता। इसके कई पहलू हैं जो सरकार और समाज दोनों के लिए विचारणीय और भविष्य के लिए सचेत करने वाले हैं। सबसे पहले पहलू के रुप में हम स्थानीय पुलिस के व्यवहार को लेते हैं। बेशक, पुलिस की भूमिका ऐसे अपराधों के बाद आरंभ होती है, लेकिन वह भूमिका निभाए ही नहीं तो फिर अपराधियों का हौसला बढ़ता है तथा परिजन आठ-आठ आंसू रोने को विवश होते हैं। 

एक अत्यंत साधारण परिवार होगा तभी तो 10 हजार रुपया नहीं चुका पा रहा था। बच्ची के माता-पिता ने हत्यारे से पचास हजार रुपए उधार लिए थे जिसमें 40 हजार रुपए वापस किए जा चुके थे। केवल दस हजार रुपया बाकी रह गया था। हत्यारे ने बच्ची के दादा को रोककर पैसे लौटाने को कहा तो दोनों के बीच विवाद हो गया। इस पर आरोपी ने देख लेने की धमकी दे दिया और उसने वाकई ऐसा देखा कि जिसकी दुःस्वप्नों में भी कल्पना नहीं की जा सकती। 

बच्ची 30 मई को गायब हो जाती है। परिवार थाना में रपट लिखवाना चाहता है लेकिन पुलिस लिखती ही नहीं। कहती है कि जाओ खुद खोजो। परिवार थक-हार कर फिर आता है तो 31 मई को गुमशुदगी रिपोर्ट लिखने की औपचारिकता पूरी होती है। परिवार के प्रार्थना पर भी पुलिस किसी तरह की छानबीन के लिए तैयार नहीं होती है। अगर अपराधियों ने अपने ही घर के आसपास शव कूड़े में दबाने की बजाय 40-50 किलोमीटर बाहर फेंका होता तो क्या होता?

 यही नहीं बच्ची का शव मिलने के बाद भी जिस तरह पुलिस को सक्रिय होना चाहिए नहीं हुई। रिपोर्ट देरी से लिखने, बच्ची की खोज में लापरवाही, हत्या होने पर आरोपियों की गिरफ्तारी में लापरवाही के आरोप में इंस्पेक्टर समेत पांच पुलिसकर्मी निलंबित किए जा चुके हैं। किंतु वह भी लोगों के भारी विरोध के बाद 6 जून को। 

निलंबन पुलिस में रुटीन प्रक्रिया है। 2 जून को बच्ची का शव आरोपी के घर के बाहर कूड़े के ढेर में पाया गया। कोट मोहल्ले में महिला सफाईकर्मी ने कूड़े के ढेर से कपड़े के एक बंडल को कुत्तों को खींचते हुए देखा। उसने शोर मचाया तो लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। कपड़े की गठरी खोलकर देखी गई तो उसमें ट्विंकल का क्षत-विक्षत शव मिला। सूचना पर पहुंची टप्पल पुलिस ने सीधे शव को गाड़ी में लादा और बिना कुछ बोले यह कहकर चल दिया कि पोस्टमार्टम करना होगा। एकदम अगंभीर रुटीन हरकत। 

इससे लोग भड़क गए, क्योंकि शक यकीन में बदल गया था कि यह किसकी करतूत है और इसके पीछे मानसिकता क्या है। सैकड़ों की संख्या में लोगों ने पीछा कर शव लेकर जा रही गाड़ी को घेर लिया। शव टप्पल थाने के सामने रखकर अलीगढ़-पलवल मार्ग पर जाम लगा दिया, थाने का घेराव हुआ। लोग जाहिद और उसके पूरे परिवार को गिरफ्तार करने की मांग कर रहे थे। हारकर एसएसपी व अन्य अधिकारियों को डॉग स्क्वायड के साथ आना पड़ा। सूंघते हुए खोजी कुत्ता कोट मोहल्ला निवासी जाहिद के घर तक पहुंचा। इसके बाद पुलिस ने जाहिद को हिरासत में ले लिया। उससे पूछताछ के बाद अपराध के दूसरे भागीदार असलम को गिरफ्तार किया गया। उसके बाद छानबीन के बाद 8 जून मेंहदी तथा जाहिद की पत्नी को गिरफ्तार किया गया। 


यह उत्तर प्रदेश सरकार के लिए विचार करने की बात है कि आखिर इतनी कड़े निर्देशों के बावजूद पुलिस का रवैये बदल क्यों नहीं रहा? छोटी बच्चियों के साथ जघन्य अपराधों की घटनाएं लगातार आने के बावजूद उसने इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया? शव मिलने के साथ ही अपराधियों तक पहुचने के लिए डॉग स्क्वायड की मदद क्यों नहीं ली? लोग दबाव नहीं डालते तो हो सकता है कि अभी तक अपराधी पकड़ में नहीं आते। थाना तक यह खबर भी पहुंच गई थी कि इसमें किसका हाथ होने का संदेश है। 

जो पकड़ा गया है उसमें असलम का अपराध का पुराना रिकॉर्ड है। असलम के खिलाफ अपहरण, दुष्कर्म और गुंडा ऐक्ट सहित पांच मुकदमे दर्ज हैं। टप्पल थाने में ही उसके खिलाफ अपनी बेटी से दुष्कर्म करने और एक बच्चे का अपहरण करने का केस दर्ज है। जेल से जमानत पर छूट कर आया था। इससे पुलिस के कान खड़े होने चाहिए थे। यह योगी सरकार के पुलिस को चुस्त कर कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने के दावे पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है। निलंबन का कोई मायने नहीं है। इनके खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए। 


अब आइए दूसरे पहलू पर। आखिर इन अपराधियों ने बच्ची को ही बदले के लिए क्यों चुना और उसके साथ बर्बरता को भी मात करने वाला व्यवहार क्यों किया? पुलिस का कहना है कि बदले की भावना से उसने असलम संग मिलकर साजिश बनाई और 30 जून को जब बच्ची खेलते हुए जाहिद के दरवाजे पर पहुंच गई तो उसे बिस्कुट देने के बहाने अपने घर में ले गया। फिर उसकी दुपट्टे से गला घोंटकर हत्या कर दी और उसके शव को भूसे की बुर्जी में दबा दिया। जब उसमें से दुर्गंध आई तो शव को बाहर लाकर फेंक दिया। 

लेकिन दुपट्टा से गला घोंटकर मारने की पुलिस की कहानी सत्यापित नहीं होती। शव की हालत ऐसी थी कि पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टरों के पैनल के सामने समस्या थी कि वो पोस्टमार्टम करें तो कहां से? शव की स्थिति का विवरण बहुत लोग सहन नहीं कर पाएंगे। बच्ची का एक भी अंग हत्यारों ने साबुत नहीं रहने दिया था। पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों के लिए जब यह कहना मुश्किल है कि उसके शरीर के साथ क्या-क्या हुआ तो पुलिस कैसे कह सकती है कि उसके साथ बलात्कार नहीं हुआ और गला घोंटकर ही मारा गया। 

तीन डॉक्टरों के पैनल की राय पर गौर करें तो शव के गलने की स्थिति से उसकी हत्या के साक्ष्य विलुप्त हो चुके हैं। पोस्टमार्टम के हालात कुछ ऐसे थे कि डॉक्टर जहां से भी शव को पकड़ रहे थे, वहां से हिस्सा अलग होने लगता था। मौत की वजह जानने को विसरा सुरक्षित किया है। यह कहना कि बच्ची के कुछ अंग जानवर खा गए कैसे मान लिया जाए? डॉक्टरों ने इतना कहा है कि शरीर में किसी नुकीले वस्तु के निशान हैं।  

चूंकि मामला देशव्यापी हो गया है इसलिए अब सच तो सामने आना ही है। रासुका लगाने का निर्णय यूं ही नहीं हुआ। स्थानीय लोगों को पता चल गया है कि दोनों ने  उन्माद की मानसिकता से ग्रस्त होकर इतनी हैवानियत की। अगर यह सच है तो फिर समस्या इस सोच की है। इस सोच का मुकाबला कैसे किया जाए इसका विचार पुलिस-प्रशासन, राजनीति के साथ हर समुदाय के विवेकशील लोगों को करना है। ऐसी मानसिकता से अपराध सामने आ रहे है। 

दुर्भाग्य से जहां बहुसंख्यक समुदाय आरोपी होता है वहां तो देश में खूब हो हल्ला मचता है, पुलिस आरंभ में ही सक्रिय हो जाती है। जहां अल्पसंख्य समुदाय आरोपी होता है वहां बहुत कुछ स्पष्ट होने के बावजूद न पुलिस जल्दी सक्रिय होती है न स्वयं को सेक्यूलर ब्रिगेड का सदस्य मानने वाले एक्टिविस्ट। इस मामले में यह साफ दिख रहा है। 

हां, आम लोग अवश्य विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, सड़कों पर उतर रहे हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने सोशल मीडिया पर लानत-मलानत करने तथा आम जनता के सड़क पर उतरने के बाद इसका संज्ञान लिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। क्या अपराध का विरोध मजहब देखकर किया जाएगा? ऐसा करके हम भविष्य के लिए कैसे समाज का बीजारोपण कर रहे हैं? अगर यह वातावरण नहीं होता तो शायद पुलिस भी आरंभ में सक्रिय हो जाती। 

पुलिस पर भी मनोवैज्ञानिक दबाव होता है कि किसी अल्पसंख्यक को उठाकर पूछताछ की और वह अपराधी नहीं निकला तो देशभर के ये एक्टिविस्ट समस्या पैदा कर देंगे और उनको कोपभाजन बनना पड़ेगा। हो सकता है कुछ नामी वकील इसके खिलाफ सीधे उच्चतम न्यायालय चले जाएं। यह वातावरण भी अपराधियों की मदद करता है। 

खैर इन एक्टिविस्टों से परे समाज के हर तबके ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है। कुछ ही घंटे में  70 हजार ट्वीट हो गए और उसके लाखों रीट्वीट होने लगे तो अलीगढ़ पुलिस को रीट्वीट में पूरी स्थिति साफ करनी पड़ी। उम्मीद है समाज की यह जागरुकता बनी रहेगी। यह अब तक के एकपक्षीय दोहरे चरित्र के एक्टिविज्म से अलग धारा होगी जो न्यायपूर्ण और औचित्यपूर्ण होगी। किंतु घटना हो जाने के बाद की जागरुकता के साथ स्थानीय स्तरों पर सर्वत्र सतर्कता और जागरुकता की आवश्यकता है। इस सोच को मारने के लिए समाज के बीच जागरण का काम करना होगा। 

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)