राफेल को बड़े भ्रष्टाचार का मामला बनाने तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इसमें संलिप्त साबित करने पर तुली कांग्रेस पार्टी को इसका आभास था। तभी तो रिपोर्ट आने के दो दिनों पहले से ही इसको खारिज करने सदृश बयान दिए जाने लगे थे। 

कपिल सिब्बल ने यह कह दिया कि वर्तमान नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक राजीव महर्षि 2014 -15 में वित्त सचिव थे, इसलिए इस सौदे से संबंधित कीमतों की फाइल उनके पास आई ही होगी। जब सौदे के फैसले में उनकी भूमिका थी तो उनको जांच करनी ही नहीं चाहिए थी। सिब्बल ने इसके साथ कैग के रुप में उनकी भूमिका को अनैतिक एवं असंवैधानिक तक करार दे दिया। 

इसके बाद अध्यक्ष राहुल गांधी की बारी थी। उन्होंने इसे चौकीदार ऑडिटर जनरल रिपोर्ट कह दिया। हालांकि उस समय तक रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई थी। इसे राष्ट्रपति के पास भेजा गया था। संसद के पटल पर रखने के पूर्व ही कांग्रेस ने संयुक्त संसदीय समिति की अपनी पुरानी मांग को लेकर हंगामा किया। उससे साफ हो गया था कि वो राफेल पर अपने रुख से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। 

कैग रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद कांग्रेसी सांसदों का हंगामा पूर्व रणनीति के अनुरुप ही था। प्रश्न है कि कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल या कुछ पत्रकार राफेल के बारे में आरोप लगाएंगे उनको सच माना जाएगा या कैग कहेगा उसे? 

कैग की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाने वाले नेता यह न भूलें कि वह एक संवैधानिक संस्था है। उसकी रिपोर्ट की भी लोक लेखा समिति जांच करती है। यदि वह नैतिक रुप से पतित होकर किसी सरकार की रक्षा करेगी तो उच्चतम न्यायालय भी है। बल्कि कैग को आजतक उच्चतम न्यायालय ने भी किसी रिपोर्ट के विवादित होने पर नहीं बुलाया। 

सच कहा जाए तो कैग ने वही कहा है जो पहले वायुसेना अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष कह चुके हैं, जो उच्चतम न्यायालय 19 दिसंबर के अपने विस्तृत फैसले में बता चुका है तथा जो सौदे के लिए बनी भारतीय वार्ता दल के प्रमुख एवं रक्षा सचिव बोल चुके हैं। 

वास्तव में सबका यही कहना था कि राफेल एक बेहतर सौदा था जो न केवल वायुसेना की वर्तमान जटिल चुनौतियों के लिए अपरिहार्य हो गया था बल्कि इसके मूल्य से लेकर अन्य शर्तें भी हमारे लिए लाभकारी हैं। 

कैग कह रहा है कि भारत और फ्रांस के बीच 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीद पर बनी सहमति भारत के लिए बेहतर शर्तों और मूल्यों के साथ थी। कैग ने इस सौदे के साथ मेक इन इंडिया अभियान को समर्थन देने के लिए ऑफसेट प्राप्त करने की शर्त को भी सही करार दिया। 

141 पृष्ठों वाली कैग रिपोर्ट में 2007 की निविदा और 2016 के अनुबंध को तालिका में दर्शाया गया है। इसे देखने के बाद सौदे के सस्ता होने को लेकर किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती है। 

कैग की रिपोर्ट में राफेल के कीमतों का जिक्र नहीं किया गया है जो कि फ्रांस के साथ हुए सौदे में गोपनीयता बनाए रखने के अनुकूल है, किंतु इसमें साफ कहा गया है कि सौदा पहले की तुलना में सस्ता है। 

हालांकि कैग ने रक्षा मंत्रालय के उस आंकड़े को नहीं माना है जिसमें कहा गया था कि 2016 में 36 राफेल विमानों का मूल्य 2007 के प्रस्ताव की तुलना में 9 प्रतिशत कम थी, पर कम थी यह स्वीकार किया है। 

इसके अनुसार 126 विमानों की पुराने सौदे से तुलना करें तो 36 राफेल विमानों का नया सौदा कर भारत 17.08 प्रतिशत धन बचाने में कामयाब रहा। यही नहीं यूपीए सरकार के वक्त की गई डील की तुलना में नया राफेल सौदा 2.86 प्रतिशत सस्ता पड़ा। इसके बाद कोई क्या कहेगा?

कैग ने तो सौदे का पूरा दस्तावेज देखा है। पूर्व में लगाई गई एवं हो रही सौदेबाजी की कीमतों एवं वर्तमान खरीद कीमतों को दखने के बाद अपना निष्कर्ष दिया है। इससे मान्य और कोई निष्कर्ष हो ही नहीं सकता। जो लोग बिना देखे सर्वज्ञ होने के अंदाज में राफेल सौदे को खलनायक बनाने पर तुले हैं उनका मुंह बंद करने के लिए कैग रिपोर्ट पर्याप्त होनी चाहिए। 

किंतु हमारे देश की राजनीति तथा मीडिया के एक वर्ग का चरित्र ऐसा हो गया है जो अपनी भूल स्वीकारने तथा सुधार करने का नैतिक साहस दिखा ही नहीं सकता। 

कैग ने तो यह भी लिखा है कि 2007 के पिछले प्रस्ताव में राफेल बनाने वाली मुख्य कंपनी दसॉ एविएशन ने परफॉर्मेंस ऐंड फाइनेंशियल वारंटी की बात कही थी, जो कुल अनुबंध की 25 प्रतिशत राशि थी। यह कितनी बड़ी राशि होगी इसका अनुमान लगाइए। 

इसी तरह 2015 के आरंभ में भी इसने राफेल के अलग से इंजन के लिए ज्यादा कीमत लगाई थी। मोदी सरकार के सौदे में भारत इन दोनो मूल्यों से बचा है। 

जरा सोचिए, अभी तक सबसे ज्यादा आरोप और हमला तीन ही बातों को लेकर था-कीमत, खरीद प्रक्रिया तथा रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट साझेदार बनाया जाना। कीमत के सस्ता होने पर तो कैग ने मुहर लगा दिया है। 

इसके पूर्व उच्चतम न्यायालय ने भी बिना आंकड़ा दिए इसे सही माना था।  उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मूल्य कई कारणों से संवेदनशील पहलू है। पहले हमने इसे न देखने का सोचा लेकिन संतुष्ट होने के लिए मांग कर उसका ध्यानपूर्वक जांच किया, जिसमें मूल विमान तथा उसमें लगाये जा रहे शस्त्रास्त्रों, एक-एक उपकरणानुसार तथा दूसरे विमानों से तुलनात्मक मूल्यों का विवरण भी शामिल है।

न्यायालय का निष्कर्ष है कि इस सामग्री को गोपनीय रखना है इसलिए हम इस पर ज्यादा नहीं कह सकते। इसी के पहले उसने कहा है कि यह निश्चय ही न्यायालय का काम नहीं है कि हम इस तरह के मामलों में मूल्यों की विस्तार से तुलना करे। 

इस पंक्ति का उल्लेख कर बताया जा रहा है कि न्यायालय ने तो कहा है कि हम मूल्यों की जांच कर ही नहीं सकते। यह पूरी टिप्पणी की  गलत और व्याख्या थी। वास्तव में उच्चतम न्यायालय ने तो तीनों मुद्दों पर अपना मत दिया था। ऑफसेट और प्रक्रिया पर उसकी टिप्पणी विस्तृत थी। उसने साफ कहा था कि ऑफसेट में सरकार की कोई भूमिका नहीं है तथा प्रक्रिया का मोटा-मोटी पालन किया गया है। कीमत के संदर्भ में जो थोड़ी बहुत कमी थी उसे कैग ने पूरा कर दिया है।

 यही नहीं कैग रिपोर्ट से सरकार के इस दावे की भी पुष्टि हुई है कि 36 विमानों में से 18 राफेल विमानों की आपूर्ति तिथियां भी पुरानी 126 विमानों की हो रही सौदे से बेहतर है। इसके अनुसार आरंभ के 18 विमान भारत को पांच महीने जल्दी मिल जाएंगे। 

कैग का यह आकलन अंग्रेजी सामचार द हिन्दू की उस रिपोर्ट को खारिज करता है जिसके आधार पर राहुल गांधी ने कहा था कि इससे प्रधानमंत्री का बेहतर और जेट की जल्द आपूर्ति का दावा खारिज हो गया है। 

13 फरवरी को ही द हिन्दू ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया कि राजग सरकार के समय में हुआ राफेल सौदा यूपीए के समय के ऑफर से बेहतर नहीं है। इसके अनुसार रक्षा मंत्रालय के तीन वरिष्ठ अधिकारियों की टीम इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि मोदी सरकार का राफेल सौदा यूपीए सरकार के समय मिले ऑफर से बेहतर नहीं है। 

इसके अनुसार भारतीय वार्ताकारों के दल में शामिल इन तीनों अधिकारियों ने 1 जून 2016 को वार्ताकार दल के प्रमुख और डिप्टी चीफ एयर स्टाफ को सौंपे नोट में ये बातें कही थीं। 

अखबार की रिपोर्ट के अनुसार अधिकारियों ने कहा था कि नए सौदे में 36 में से 18 राफेल विमानों की आपूर्ति भी पुराने ऑफर के तहत मिलने वाले 18 विमानों से धीमी रहेगी। यानी उसकी तुलना में देर से मिलेगी। इसमें बताया गया था कि उस समय सौदे का जो मसविदा बना था उसमें फ्लाईअवे यानी उड़ान भरने की स्थिति वाले विमानों की आपूर्ति का समय 37 से 60 महीने के बीच तय किया गया था। लेकिन फ्रांस ने बाद में आपूर्ति का वक्त 36 से 67 महीने तय कर दिया। 

वहीं, यूपीए सरकार के समय फ्रांस सरकार ने 18 राफेल विमानों की आपूर्ति का समय 36 से 53 महीने के बीच तय किया था। दरअसल हाल में कुछ मीडिया संस्थानों ने आधी-अधूरी बातें छापकर सनसनी पैदा करने तथा सरकार को कठघरे में खड़ा करने की गंदी कोशिश की है। हालांकि उनमें से सारी बातों का खंडन हो चुका है। 

किंतु कैग उनके मुंह पर बड़ा तमाचा है। कैग कहता है कि सौदे में जो देरी हुई उसकी मुखय वजह तकनीकी और मूल्य मूल्यांकन में आई दिक्कत है। तकनीकी मूल्यांकन रिपोर्ट में निष्पक्षता, तकनीकी मूल्यांकन प्रक्रिया की इक्विटी के बारे में नहीं बताया गया। 

ऑडिट ने ये भी पाया कि भारतीय वायुसेना ने एएसक्यूआर (एयर स्टाफ क्वालिटेटिव रिक्वायरमेंट) को ठीक से परिभाषित नहीं किया। एएसक्यूआर खरीद की प्रक्रिया के दौरान कई बार बदला भी है। भारतीय वायु सेना ने एयर स्टाफ क्वांटीटिव रिक्वायरमेंट को सही तरीके से नहीं बताया जिसके कारण कोई भी वेंडर एएसक्यूआर पर खरा नहीं उतर पाया था। 

खरीद प्रक्रिया के दौरान एसक्यूआर को जल्दी-जल्दी बदला गया, जिसके कारण तकनीक और मूल्य आकलन के दौरान दिक्कतों का सामना करना पड़ा एवं प्रतिस्पर्धात्मक निविदा पर असर पड़ा। इस कारण राफेल खरीद मे देरी हुई। इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता। जो काम वायुसेना का था वह वही कर सकती थी। पहले के सौदे की बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच नहीं रही थी इसलिए सरकार ने उसे खत्म कर नए सिरे से सौदा वार्ता आरंभ करने का निश्चय किया, क्योंकि भारतीय वायुसेना ने आपातकालीन आवश्यकता जता दी थी। 

वायुसेना को जल्दी में सारे दस्तावेज बनाने थे। शायद इससे समस्या हुई होगी। किंतु ऐसा होता है। मार्च 2015 में रक्षा मंत्रालय की एक टीम ने 126 राफेल विमानों की खरीद का सौदा वार्ता रद्द करने की सिफारिश की थी। टीम ने कहा था कि डसाल्ट एविएशन की बोली महंगी थी और ईएडीएस (यूरोपियन एरोनॉटिक्स डिफेंस एंड स्पेस कंपनी) पूरी तरह से आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं थी। 


लेकिन जैसा मैंने आरंभ में कहा सारे प्रमाण पत्र मिलने के बाद भी राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस, कुछ विपक्षी दल एवं स्वनामधन्य पत्रकार चुप नहीं बैठने वाले यह साफ है। आखिर कैग रिपोर्ट के साथ ही कांग्रेस के सांसदों ने राहुल गांधी के नेतृत्व में संसद परिसर में प्रदर्शन किया, चौकीदार चोर है के नारे लगाए। इस विरोध प्रदर्शन के दौरान सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद थे। 

राहुल गांधी कैग रिपोर्ट आने के एक दिन पहले एक समाचार पत्र में छपे ईमेल को लेकर आ गए और कहने लगे कि रिलांयस का यह ईमेल है जिसमें उसे पता है कि 10 दिनों बाद भारत और फ्रांस के बीच एमओयू पर हस्ताक्षर होना है। 

उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जो राजनीति में नहीं किए जाने चाहिए। 

राहुल गांधी ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनिल अंबानी के लिए बिचौलिए यानी दलाल की तरह काम कर रहे थे। इस तरह उन्होंने देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ तथा सरकारी गोपनीयता कानून का उल्लंघन किया है। वे यहां तक बोल गए कि इसके लिए मोदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि इमेल में एयरबस के एक एक्जीक्यूटिव ने लिखा है कि अनिल अंबानी फ्रांस के रक्षा मंत्री से मिले थे। उन्होंने एग्जीक्यूटिव से कहा था कि 10 दिन बाद राफेल डील होनी है और वह इसे हासिल करने जा रहे हैं। अनिल अंबानी ने फ्रांस के रक्षा मंत्री के साथ मुलाकात में कहा था कि मोदी के फ्रांस दौरे के वक्त एक एमओयू पर हस्ताक्षर होगा।  


उन्होंने प्रश्न कर दिया कि प्रधानमंत्री के फ्रांस दौरे से पहले अंबानी को कैसे पता चल गया था कि सौदा होने वाला है और कांट्रैक्ट उन्हें मिलने वाला है? उन्होंने यह भी प्रश्न कर दिया कि अनिल अंबानी कैसे प्रधानमंत्री के दौरे से पहले फ्रांस के रक्षा मंत्री से मुलाकात कर रहे थे? 

उनके उद्गार देखिए- तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को सौदे के बारे पता नहीं था। तत्कालीन विदेश सचिव को नहीं मालूम था। एचएएल को नहीं मालूम था। लेकिन अनिल अंबानी को पहले से पता था कि सौदा होने वाला है, जबकि अंबानी फ्रांस के रक्षा मंत्री के साथ बैठकर बातचीत कर रहे थे। 

रिलायंस डिफेंस ने इन आरोपों का तुरत खंडन किया। रिलायंस डिफेंस के प्रवक्ता ने कहा कि वह ईमेल एयरबस हेलिकॉप्टर और रिलायंस डिफेंस के बीच सहयोग को लेकर था। उक्त ईमेल का भारत सरकार और फ्रांस के बीच हुए 36 राफेल विमान सौदे से कोई संबंध नहीं है। 

वह ‘मेक इन इंडिया’ के तहत नागरिक एवं रक्षा हेलीकॉप्टर कार्यक्रम के बारे में एयरबस और रिलायंस डिफेंस के बीच हुई चर्चा से संबंधित है। प्रस्तावित एमओयू पर चर्चा स्पष्ट रूप से एयरबस हेलीकॉप्टर और रिलायंस के बीच सहयोग पर हो रही थी। 

हम यहां रिलायंस डिफेंस की रक्षा नहीं करना चाहते पर यही सच है। देश में मेक इन इंडिया के तहत भारत के अनेक उद्योगपति विदेशी उद्योगों के साथ साझेदारी के लिए काम कर रहे हैं। उसमें से अनेक साझेदारियां शुरु भी हुई हैं। 

रक्षा निर्माण में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देने की सरकारी नीति के कारण ऐसी कोशिशें हो रहीं हैं। इसमें कोई उद्योगपति कहीं के रक्षा मंत्री से मिलता है तो इसमें समस्या क्या है? इसका जवाब तो फ्रांस के रक्षामंत्री को देना चाहिए कि वो अनिल अंबानी से क्यों मिले? क्या विदेश के उद्योगपति आकर हमारे मंत्रियों से नहीं मिलते? ऐसे बचकाने आरोपों का क्या उत्तर दिया जा सकता है? 

वैसे भी राफेल सौदे पर बातचीत हो रही थी उसका ज्ञान फ्रांस के रक्षा मंत्री को कैसे नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अप्रैल 2015 की फ्रांस यात्रा पहले से तय थी। उससे संबंधित खबरें समाचार पत्रों में लगातर आ रहीं थीं जिनमें यह भी शामिल था कि राफेल पर बातचीत होगी तथा उसे खरीदने पर सहमति भी हो जाएगी। यह सार्वजनिक खबर थी। 

राहुल गांधी को उस समय के अखबार देखने चाहिए। 11 अप्रैल 2015 को मोदी एवं फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद के बीच पत्रकार वार्ता दुनिया के सामने हुई। 

किंतु जो एमओयू हस्ताक्षरित हुआ उसमें केवल राफेल खरीदने के इरादे की बात थी। सौदा समझौता पर तो 24 अगस्त 2016 को सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति के अनुमोदन के बाद सौदा फ्रांस के रक्षा मंत्री जीन य्वेस ल द्रिआन और तत्कालीन भारत के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर के बीच नई दिल्ली में 23 सितंबर 2016 को हस्ताक्षर हुआ। इसलिए इस तरह के आरोप गैरजिम्मेदार राजनीति का नमूना है। 

अब आइए कैग को कठघरे में खड़ा करने की अनैतिक हरकत पर बात करते हैं। 

कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि राजीव महर्षि 24 अक्टूबर 2014 से लेकर 30 अगस्त 2015 तक वित्त सचिव थे और इसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 10 अप्रैल 2015 को पेरिस गए और राफेल करार पर दस्तखत की घोषणा की। 

वे कह रहे हैं कि वित्त मंत्रालय इन वार्ताओं में अहम भूमिका निभाता है। अब स्पष्ट है कि राफेल करार राजीव महर्षि के इस कार्यकाल में हुआ। अब वह कैग के पद पर हैं। हमने 19 सितंबर 2018 और चार अक्टूबर 2018 को उनसे मुलाकात की। हमने उन्हें घोटाले के बारे में बताया। हमने उन्हें बताया कि करार की जांच होनी चाहिए क्योंकि यह भ्रष्ट तरीके से हुआ। 
हमने बताया था कि राफेल करार में कहां-कहां अनियमितताएं हुई हैं और इसमें कैसे भ्रष्टाचार हुआ है। लेकिन वह अपने ही खिलाफ कैसे जांच करा सकते हैं? 

सिब्बल कह रहे हैं कि निश्चित तौर पर वह वित्त सचिव के तौर पर लिए गए फैसलों की जांच नहीं कर सकते। वह पहले खुद को और फिर अपनी सरकार को बचाएंगे। इससे बड़ा हितों का टकराव तो कुछ हो ही नहीं सकता। यह आरोप निंदनीय तो है ही, क्योंकि किसी संवैधानिक संस्था के प्रमुख की ओर इस तरह आशंका की उंगली नहीं उठाई जानी चाहिए। इसके साथ यह तथ्यात्मक रुप से भी गलत है। 

अप्रैल 2015 में तो सौदा हुआ ही नहीं था। उसके बाद सात सदस्यीय वार्ता दल ही गठित हुआ। दूसरे,  
महर्षि उस दौरान आर्थिक मामलों के सचिव थे। उनके पास राफेल संबंधी कोई फाइल नहीं आई थी। आर्थिक मामलों के सचिव का रक्षा मंत्रालय की खर्च से जुड़ी फाइलों में कोई भूमिका नहीं होती।

 रक्षा मंत्रालय की फाइलों को सचिव (व्यय) देखते हैं। अगर उनको राजीव महर्षि की ईमानदारी पर संदेह था तो दो बार अपने आरोपों को लेकर मिलने ही क्यों गए? आप जैसी चाहते हैं कैग वैसी रिपोर्ट बना दे तो ठीक और उसके अनुसार नहीं बना तो वह गलत। उच्चतम न्यायालय ने भी यही कहा था कि किसी ने राफेल सौदे के बारे में कोई धारणा बना लिया है उसके आधार पर जांच की अनुमति नहीं जी सकती। यही कहते हुए न्यायालय ने सिट से जांच कराने की याचिका खारिज कर दी थी। 

जाहिर है, राफेल पर तथ्यहीन आरोपों का अनैतिक सिलसिला शुरु करने के बाद कांग्रेस किसी सूरत में पीछे हटने को तैयार नहीं। राहुल गांधी की जगह दूसरा नेता होता तो शायद कोई उसे चुप हो जाने का सुझाव भी देता लेकिन उनके सामने ऐसा करने की हिम्मत कौन करे। 

किंतु देश के सामने पूरा सच आ चुका है। राफेल भारत के लिए हर दृष्टि से एक बेहतरीन सौदा है। इतना बावेला मचाने के बावजूद सरकार ने उस पर अड़े रहकर भारत की रक्षा शक्ति को आवश्यकतानुसार सशक्त करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित किया है।