नई दिल्ली: कांग्रेस के घोषणापत्र को देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि यह उसी पार्टी का घोषणा पत्र है, जिसने देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन किया है।  जिसके काल में पहले नक्सलवाद फिर माओवाद पैदा हुआ, पंजाब एवं जम्मू कश्मीर का आतंकवाद आरंभ हुआ और इन सबसे उसे लड़ना पड़ा। यह उस पार्टी का घोषणा पत्र भी नहीं लगता जिसके दो बड़े नेता और भारत के दो प्रधानमंत्रियों की जान आतंकवाद ने ले ली। इनमें से एक इंदिरा गांधी की हत्या तो प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए की गई। 

ये वायदे उस पार्टी के भी नहीं लगते जिसने जम्मू कश्मीर पर भी अकेले तथा साथी दलों के साथ सबसे ज्यादा समय तक राज किया। ऐसा लगता है जैसे घोषणा पत्र कांग्रेस के नेताओं ने नहीं, उन लोगों ने तैयार किया है जो वैचारिक रुप से माओवाद, आतंकवाद तथा कश्मीर के अलगाववाद का समर्थन करते हैं। 

जिन लोगों ने घोषणा पत्र को ध्यान से नहीं पढ़ा है उनको इसमें अतिवाद दिख सकता है, पर सच यही है। वास्तव में जब घोषणा पत्र जारी करते हुए पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसके पांच थीम बताए उनमें चार तो सीधे सामाजिक-आर्थिक विकास से जुड़े थे जिन पर सहमति-असहमति हो सकती है किंतु उनसे डर पैदा नहीं हो सकता। 

पांचवी थीम में सुरक्षा की बात थी जिसके बारे में तब कुछ नहीं बताया गया। इसलिए देश को इसके बारे में आरंभ में जानकारी मिली भी नहीं। किंतु घोषणा पत्र सामने आने के बाद इसके कुछ अंशों से उनको भी धक्का लगा है जो नरेन्द्र मोदी के विरोध में कांग्रेस का समर्थन करने का मन बना चुके थे। 
घोषणा पत्र के उन अंशों को लेकर स्वाभाविक ही देश में सघन बहस चल रही हैं। हालांकि इसमें अलग-अलग बिन्दुओं पर बातें हो रहीं हैं। दरअसल, इन सबको एक साथ मिलाकर विचार करने से कांग्रेस की कल्पना की एक समग्र तस्वीर बनती है और उनके आधार पर ही सही निष्कर्ष निकलता है। तो एक बार उन विन्दुओं को देख लिया जाए। 

1.    पृष्ठ संख्या 34 में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए जो कि देशद्रोह के अपराध को परिभाषित करती है, जिसका कि दुरुपयोग हुआ, और बाद में नये कानून बन जाने से उसकी महत्ता समाप्त हो गई है उसे खत्म किया जाएगा। 
2.    उन कानूनों को संशोधित करेंगे जो कि बिना सुनवाई के व्यक्ति को गिरफ्तार और जेल में डालकर संविधान की आत्मा के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार मानकों-सम्मेलनों का भी उल्लंघन करते हैं। 
3.    हिरासत और पूछताछ के दौरान थर्ड डिग्री तरीको का उपयोग करने और अत्याचार, क्रूरता या आम पुलिस ज्यादतियों के मामलों को रोकने के लिए अत्याचार निरोधक कानून बनायेंगे। 
4.    सशस्त्र बलों विशेष शक्ति अधिनियम या अफस्पा 1958 में से यौन हिंसा, गायब कर देना तथा यातना के मामलों में प्रतिरक्षा जैसे मुद्दों को हटाया जाएगा ताकि सुरक्षा बलों और नागरिकों के बीच संतुलन बना रहे। 
5.    आपराधिक प्रक्रिया संहिता और संबंधित कानूनों को इस सिद्धांत के तहत संशोधित करता है कि जमानत एक नियम है और जेल एक अपवाद। 
6.     जम्मू कश्मीर वाले पृष्ठ में सबसे पहले कहा गया है कि हम राज्य के अनुपम इतिहास और उन अद्वितीय परिस्थितियों का भी सम्मान करते हैं, जिनके तहत राज्य ने भारत में विलय को स्वीकार किया जिसकी वजह से भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किया गया। इस संवैधानिक स्थिति को बदलने की न तो अनुमति दी जाएगी, न ही ऐसा कुछ भी प्रयास किया जायेगा। 
7.    जम्मू कश्मीर संबंधी घोषणा के तीसरे विन्दू में कहा गया है कि कांग्रेस ने सशस्त्र बलों की तैनाती की समीक्षा करने, कश्मीर घाटी में सेना और सीआरपीएफ की मौजूदगी कम करने और कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस को और अधिक जिम्मेदारी सौंपने का वादा करती है।
8.    जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम और अशांत क्षेत्र अधिनियम की समीक्षा की जाएगी। सुरक्षा की जरुरतों और मानवाधिकारों के संरक्षण में संतलन के लिए कानूनी प्रावधानों में उपयुक्त बदलाव किए जाएंगे। 
9.     जम्मू कश्मीर और यहां की समस्याओं को खुले दिल के साथ सैन्यशक्ति और कानूनी प्रावधानों से परे, एक अभिनव संघीय समाधान की तलाश करेंगे। 
10.     कांग्रेस राज्य में सभी पक्षों के साथ, धैर्यपूर्वक बातचीत के माध्यम से, स्थाई समाधान खोजने का वादा करती है। 
11.     बिन्दु 6 -कांग्रेस जम्मू कश्मीर के लोगों से बिना शर्त बातचीत क वादा करती है। हम इस तरह की बातचीत के लिए नागरिक समाज में चुने हुए 3 वार्ताकारों की नियुक्ति करेंगे।
घोषणा पत्र का अर्थ है पार्टी की विचारधारा। इन ग्यारह विन्दुओं को साथ मिलाकर देखिए और फिर निष्कर्ष निकालिए कि कांग्रेस की विचारधारा क्या है? इसके अनुसार सम्पूर्ण भारत तथा जम्मू कश्मीर की एक तस्वीर बनाइए। शुरुआत देशद्रोह या राजद्रोह कानून तथा अफस्पा से करें। 

कांग्रेस के नेताओं का तर्क है कि देशद्रोह कानून अंग्रेजों के समय का है जिसकी आवश्यकता नहीं तथा इसका दुरुपयोग ज्यादा होता है। निस्संदेह, अंग्रेजों ने 1870 में यह कानून अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों या संघर्ष करने वालों के दंडित करने के इरादे से बनाया था। तो इसे आजादी के बाद ही खत्म क्यों नहीं किया गया? 

पं. नेहरु ने इसकी आलोचना करते हुए कहा था कि कानून में इसकी जगह नहीं होनी चाहिए। किंतु आजादी के 17 वर्ष बाद तक वे प्रधानमंत्री रहे और इसे नहीं हटाया। वस्तुतः जिस तरह उनके काल में ही देशविरोधी शक्तियों ने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया था, देश की एकता-अखंडता को भी चुनौती मिलने लगी थी उसमें इस कानून को बनाए रखना अपरिहार्य हो गया। 

क्या वो स्थितियां बदल गईं हैं। इन शक्तियों में आगे इजाफा हुआ। भविष्य में ये शक्तियां कमजेर पड़ जाएंगी इसकी गारंटी कोई दे ही नहीं सकता। दुनिया में शायद ही ऐसा देश होगा जिसके यहां इस तरह का कोई न कोई कानून नहीं हो। इसका दुरुपयोग वाकई हुआ है। कई बार सरकारों की आलोचना या उसके सतत् विरोध तक के मामले को देशद्रोह बना दिया गया। किंतु दुरुपयोग होना किसी कानून के खत्म करने का आधार नहीं हो सकता।  

कांग्रेस कह रही है कि ऐसे कानून आ गए हैं जिनके बाद इसकी जरुरत नहीं। इससे कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता। कोई भी कानून इसका स्थानापन्न करने वाला नहीं बना है यही सच है। इस कानून को कहां-कहां और किन परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है उसके बारे में न्यायालयों के कई फैसले आ चुके हैं।

 वैसे भी कांग्रेस के घोषणा पत्र की इस पंक्ति से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि इसका केवल दुरुपयोग ही हुआ है। इस कानून ने देशविरोधी गतिविधियों में लगे  न जाने कितने अपराधियों को सजा दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर देश की एकता-अखंडता की रक्षा की है। इसलिए इसमें थोड़ा-बहुत संशोधन की बात तो समझ में आ सकती है लेकिन इसे आज की परिस्थितियों में खत्म करना सीधे-सीधे देश को खतरे में डालना तथा देशविरोधी गतिविधियों में संलिप्त लोगों को खुलेआम ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करना है। 

अफस्पा को लंबे समय से खलनायक बना दिया गया है। कांग्रेस के घोषणा पत्र की भाषा से ऐसा लगता है मानो सुरक्षा बल जम्मू कश्मीर सहित अन्य क्षेत्रों में इसका केवल दुरुपयोग ही करते हैं। 

नवंबर 2004 में  यूपीए सरकार ने ही उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में इसकी समीक्षा के लिए एक समिति बनाई थी जिसने जून 2005 में सरकार को सौंपी थी। उसकी अनुशंसाओं तक को सार्वजनिक नहीं किया गया। उसके बाद नौ वर्ष तक कांग्रेस शासन में रही फिर इस कानून को संशोधित क्यों नहीं किया गया इसका जवाब उसे देना चाहिए।

 जिन तीन संशोधनों की बात घोषणा पत्र में हैं वे ही सुरक्षा बलों को सबसे ज्यादा प्रतिरक्षा देने वाले हैं। उन पर यौनाचार, किसी को गायब कर देने तथा यातना देने का ही आरोप सबसे ज्यादा लगाया जाता है। यदि इन तीनों से सशस्त्र बलों को मिला सुरक्षा कवच हटा लिया गया तो फिर उनकी दशा क्या होगी इसके अनुमान से भी भय पैदा होता है। 

वर्तमान कांग्रेस के नेताओं को पता नहीं यह तथ्य याद भी है या नहीं कि जब 1958 में नेहरु जी कार्यकाल में अफस्पा बना तो  अशांत क्षेत्र घोषित कर लागू करने की जिम्मेवारी राज्यों को ही दी गई थी। इंदिरा गांधी के शासनकाल में 1972 में संशोधन कर यह अधिकार केन्द्र को दे दिया गया। ये नेतागण ऐसा करने के पीछे उस समय जो तर्क दिया गया था उन सबको एक बार पढ़ लें। 

हम तो चाहेंगे कि उनको आज फिर से उन सारी बातों को सामने लाया जाए। घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष पी. चिदम्बरम कह रहे हैं कि मोदी सरकार ने स्वयं पूर्वोत्तर के राज्यो के कई क्षेत्रों से अफस्पा हटा दिया उसे बारे में बताए। कोई अफस्पा को स्थायी रुप से लागू करने का समर्थन नहीं करता। तार्किक तरीके से इसे हटाया ही जाना चाहिए। पूर्वोत्तर के राज्यों के अपराध से संबधित आंकड़े बताते हैं कि उग्रवाद की घटनाओं में व्यापक कमी आ गई। उसके बाद समीक्षा करके उसे हटाने या लागू रहते हुए भी व्यवहार में उसका उपयोग न किए जाने या फिर राज्य सरकार को हटाने की स्वतंत्रता देने में कोई समस्या नहीं है। 

किंतु, एक तो कांग्रेस इसके मुख्य तीन प्रावधानों को सीधे खत्म करने की बात कर रही है तथा जम्मू कश्मीर में इसकी समीक्षा की। इनको एक साथ मिलाकर देखने से यह केवल गैर जिम्मेवार नहीं, देश विरोधी सोच प्रतीत होता है। 

जम्मू कश्मीर विशेष कानून 1990 में बना था। यह एक दुष्प्रचार है कि इस कानून ने सेना और सशस्त्र पुलिस बल को बिल्कुल स्वच्छन्दता दे दी है। किसी मामले की छानबीन का अधिकार पुलिस के पास ही है। सेना किसी को गिरफ्तार करती है तो उसे निकट के पुलिस थाने को सुपुर्द करना पड़ता है। जब्त सामान भी पुलिस के हाथों ही करना है। 

कांग्रेस कह रही है कि कश्मीर घाटी में सेना और सीआरपीएफ की मौजूदगी कम करने और कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस को और अधिक जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। इस उलझी हुई पंक्ति से तो तस्वीर ऐसी बनती है मानो सुरक्षा बल वहां पूरी तरह पुलिस की भूमिका में हैं।

 यही आरोप  अलगाववादी एवं भारत विरोधी लगाते हैं। जम्मू कश्मीर विशेष कानून में नागरिक एवं पुलिस प्रशासन की भूमिका को कायम रखा गया है। न भूलें कि जब आप आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रहे होते हैं तो कई बार आपात परिस्थितियां पैदा होतीं हैं। कोई आतंकवादी या उसका समर्थक पकड़ा गया तो उससे तुरत पूछताछ कर उसके अन्य साथियों का पीछा करने, गिरफ्तार करने या मुठभेड़ करने की नौबत आती है। वैसे पिछले सालों में सुरक्षा बलों तथा पुलिस के बीच बेहतरीन समन्वय है और ज्यादातर जगह ये साथ देखे जाते हैं। इसलिए पुलिस अपनी भूमिका कार्रवाई के साथ-साथ निभाती जाती है। इसमें और सुधार की आवश्यकता हो तो किया जा सकता है। यहां तक कोई समस्या भी नहीं। कांग्रेस का घोषणा पत्र इससे परे अलगाववादियों, आतंकवादियों एवं भारत विरोधियों के आरोपों को स्वीकार कर उनकी मांगों को पूरा करने वाला है। 

आप देशद्रोह कानून खत्म कर देंगे, अफस्पा के तीनों प्रमुख कवच हटा लेंगे, सेना व सशस्त्र पुलिस बल के अधिकार कम कर देंगे, घाटी में सुरक्षा बलों की संख्या कम कर देंगे तो फिर परिस्थितियां कैसी पैदा होंगी? जहां भी सुरक्षा बल कार्रवाई करेंगे, जिसके घर की, गाड़ी की तलाश करेंगे, जिसको पकड़कर पूछताछ करेंगे सबके रिश्तेदार या पक्षकार या ये स्वयं थाने में मुकदमा दर्ज कराएंगे और इनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी। इसमें ये आतंकवाद-अलगाववाद से लड़ेंगे या अपना बचाव करेंगे? 

पता नहीं कांग्रेस ने इन पर विचार किया भी है या नहीं।  सब मानते हैं कि आफस्पा एक विशेष कानून है जो अतिविशेष परिस्थितियों में ही लागू किया जाना चाहिए और जम्मू कश्मीर इस श्रेणी में आता है। इस कानून के कारण ही भयावह स्थितियों में उग्रवादियों-आतंकवादियों या ऐसे दूसरे खतरों से जूझ रहे जवानों को कार्रवाई में सहयोग के साथ-साथ सुरक्षा भी मिलती है। वे निर्भय होकर कार्रवाई करते हैं। एक ओर हमारे जवान अपनी बलि चढ़ाकर कश्मीर की तथा वहां के आम लोगों की रक्षा कर रहे हैं और कांग्रेस का घोषणा पत्र उनको ही कठघरे में खड़ा कर रहा है। 

2012 से अभी तक लगभग 1200 आतंकवादियों को मारने में सवा चार सौ से ज्यादा जवान शहीद हो गए। क्या इनके बलिदान की कांग्रेस नेताओं के मन में कोई कीमत नहीं? जिस ढंग से मेहबूबा मुफ्ती एवं उमर अब्दुल्ला दोनों कांग्रेस के वायदों का स्वागत कर रहे हैं उनसे समझा जा सकता है कि इसका घाटी में क्या संदेश गया है। 


महबूबा कह रहीं हैं कि कांग्रेस का घोषणा पत्र उनकी नीतियो का ही समर्थन करता है। कांग्रेस के वायदों से कश्मीर में अलगाववादी-आतंकवादी सबसे ज्यादा प्रसन्न होंगे। यही मनोस्थिति देश के अन्य क्षेत्रों में हिंसा में प्रत्यक्ष संलग्न या अलग-अलग मुखौटों में उनका समर्थन करने वाले विघटनकारी तत्वों की होगी। उनकी तो चांदी हो जाएगी। देशद्रोह कानून रहेगा नहीं, जहां अफस्पा लागू है वहां भी सुरक्षा बलों के मुख्य कवच हट जाएंगे, पुलिस एवं सुरक्षा बलों द्वारा पूछताछ में सख्ती आदि के खिलाफ अत्याचार निवारण कानून की ताकत इनके हाथों होगी, जमानत इनका अधिकार हो जाएगा......तो फिर और चाहिए ही क्या! 


इन सबको मिलाकर देखें तो यह एक नई कांग्रेस दिखेगी। लगता ही नहीं कि इस कांग्रेस का पं. नेहरु, वल्लभाई पटेल, लालबहादूर शास्त्री, इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, नरसिंह राव जैसे नेताओं से कोई रिश्ता है। इंदिरा गांधी ने मकबूल बट्ट को उस समय फांसी पर चढ़ा दिया जब आतंकवादियों ने भारतीय राजनयिक रविन्द्र म्हात्रे का अपहरण कर उसे छोड़ने की मांग की थी। इंदिरा गांधी नहीं झुकीं। रविन्द्र म्हात्रे की हत्या हो गई। 

राजीव गांधी ने पूर्वोत्तर के राज्यों में, पंजाब में शांति के समझौते किए, लेकिन उन्होंने अफस्पा हटाने, देशद्रोह कानून खत्म करने या जमानत को अधिकार मानने को उनमें स्थान नहीं दिया। भारत को तोड़ने वाले या हिंसक उग्रवाद चलाने वाले या बुद्धिजीवी पत्रकार, एक्टिविस्ट एनजीओ के रुप में उनका छद्म एजेंडा चलाने वाले यही चाहते थे। राहुल गांधी की कांग्रेस ने इनकी वर्षों पुरानी इच्छा को पूरा कर दिया है।
 
 हालांकि घोषणा पत्र में कहा गया है कि कांगेस इस बात को दोहराती है कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। उसकी रक्षा करने का वचन भी है। सुरक्षा बलों के बारे में भी अच्छी-अच्छी बातें हैं, पर इन सिद्धांत वक्तव्यों के बाद जिन कदमों के वायदे हैं वो इन संकल्पों के विपरीत हैं। बिना शर्त बातचीत करेंगे तो जरुर करिए।

 क्या इसके पहले ऐसा नहीं किया गया? वार्ताकार नियुक्त करने की घोषणा करने वाले क्या भूल गए कि यूपीए सरकार ने दिलीप पडगांवकर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी जिसने सभी पक्षों से बातचीत कर अपनी अनुशंसाएं दी थीं। उनकी अनुशंसाएं आज भी पड़ी हुईं हैं। उनको उस समय क्यों नहीं माना? तब तो उसे अव्यावहारिक माना गया। 

वस्तुतः पहले लगता था कि आंतरिक सुरक्षा एवं जम्मू कश्मीर में अलगाववाद-आतंकवाद पर कांग्रेस की सोच उलझी हुई है। किंतु अब तो इन घोषणाओं में कहीं उलझाव या अस्पष्टता है ही नहीं। चिदम्बरम ने दो वर्ष पहले लिखा था कि कश्मीर में आजादी की मांग करने वाले ज्यादा स्वायत्तता चाहते हैं। गृहमंत्री रहा व्यक्ति यदि इस प्रकार की बात करता है तो उसकी सोच पर तरस आती है। 

वहां पाकिस्तान जिन्दाबाद तथा आजादी का मतलब क्या ला इलाहा इलल्लाह का नारा लगता है और ये महान नेता उसे स्वायत्तता की मांग मानते हैं। ऐसी ही सोच से ये वायदे निकले हैं जिनको देश कभी स्वीकार नहीं कर सकता। इसका राजनीतिक निहितार्थ भी कांग्रेस के लिए प्रतिकूल ही है। इन घोषणाओं से कांग्रेस के नेताओं ने भाजपा के हाथों राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता-अखंडता सहित राष्ट्वाद के मुद्दे नए सिरे से थमा दिया है।   

अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)