नई दिल्ली: आम चुनाव के शोर के बीच हमारी शीर्ष न्यायपालिका उच्चतम न्यायालय के समक्ष आए गंभीर संकट पर देश का ध्यान उतना नहीं है जितना होना चाहिए। जब पिछले वर्ष 12 जनवरी को उच्चतम न्यायालय के चार न्यायाधीशों ने पत्रकार वार्ता बुलाकर न्यायालय में पीठ गठित करने से लेकर अन्य कई प्रश्न उठाए थे तो यह लंबे समय तक चर्चा और बहस का विषय बना हुआ था। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर जबसे उच्चतम न्यायालय की एक पूर्व महिला कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए सभी न्यायाधीशों को पत्र लिखा तभी से हलचल मची हुई है। मुख्य न्यायाधीश पर पहली बार ऐसा आरोप लगा है। 

यह आरोप चल ही रहा था कि वकील उत्सव बैंस ने न्यायालय में एक याचिका दायर कर आरोप पर विचार कर रही पीठ के सामने अपनी राय रखने की मांग की। बैंस ने कहा है कि न्यायालय में पीठ फिक्सिंग का खेल चल रहा है तथा इसके पीछे बड़ी कॉरपोरेट शक्तियां हैं। उन्होंने यह भी खुलासा किया इस बारे उनके कार्यालय में संपर्क किया गया था। इससे संबंधित सीसीटीवी फुटेज अन्य दस्तावेज बैस ने न्यायालय को दिया है। अगर बैंस की बात मानी जाए तो महिला के माध्यम से इन शक्तियों ने मुख्य न्यायाधीश को फंसाने की साजिश रची है। आरोप लगने के बाद ही मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने कहा था कि न्यायपालिका गंभीर खतरे में है। गोगोई ने कहा कि कुछ महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से पहले यह उन्हें निशाना बनाने का एक बड़ा षडयंत्र है। 


हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वह कार्यकाल के बाकी बचे सात महीनों में अपने पद पर बैठेंगे और सुनवाई के लिए आने वाले प्रत्येक मामले का बिना किसी डर या पक्षपात के फैसला करेंगे। मुख्य न्यायाधीश से सामान्य तौर पर यही अपेक्षा होगी। किंतु आरोप लगने के बाद स्थितियां काफी बदल जातीं हैं। 

किंतु प्रश्न केवल किसी मुख्य न्यायाधीश पर आरोप तक सीमित नहीं है। ये शीर्ष न्यायालय के सम्पूर्ण चरित्र पर उठे प्रश्न हैं जो उपयुक्त उत्तर के साथ ऐसी स्थितियां निर्मित करने की मांग करते हैं ताकि इसकी कार्यप्रणाली ज्यादा पारदर्शी हों तथा इसकी विश्वसनीयता और साख पर कोई संदेह न रहे। अगर मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका को गंभीर खतरे में मान रहे हैं तथा महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई के पूर्व उनके सहित अन्य न्यायाधीशों को दबाव में लाने की साजिश की ओर संकेत कर रहे हैं तो इससे गंभीर स्थिति शीर्ष न्यायपालिका के लिए कुछ हो ही नहीं सकती। बैंस के आरोप से इसकी एक हद तक पुष्टि भी होती है। 

अगर निहित स्वार्थी तत्व न्यायालय में अपने मामले की सुनवाई के लिए अनुकूल पीठ तक गठित करवाने का खेल रच रहे हैं तो साफ है कि हमारी न्यायपालिका गंभीर बीमारी से ग्रस्त है। महिला के आरोपों के बाद न्यायमूर्ति गोगोई ने स्वयं को भी उसकी विशेष सुनवाई में शामिल किया। इस पर वकीलों के संगठनों सहित अन्य अनेक संस्थाओं ने प्रश्न भी उठाए लेकिन गोगोई का कहना था कि उन्होंने न्यायालय में बैठने का असामान्य और असाधारण कदम उठाया है क्योंकि चीजें बहुत आगे बढ़ चुकी हैं।

न्यायपालिका को बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता। वैसे पीठ ने जो फैसला किया उसमें मुख्य न्यायाधीश का नाम शामिल नहीं था। इस मामले की सुनवाई के लिए एक विशेष पीठ गठित करने का फैसला हुआ। तत्काल महिला के आरोपों की आंतरिक जांच के लिए न्यायमूर्ति गोगोई के बाद दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता में एक समिति गठित किया गया है। न्यायमूर्ति बोबडे ने समिति में वरिष्ठता क्रम में उनके बाद आने वाले न्यायमूर्ति एन. वी. रमन तथा महिला होने के कारण न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी को शामिल किया। आरोप लगाने वाली महिला ने बयान दे दिया कि न्यायमूर्ति रमन्ना  न्यायमूर्ति गोगोई के नजदीकी मित्र हैं। इसके बाद न्यायमूर्ति रमन्ना ने स्वयं ही इस समिति से अपने को अलग कर लिया। हालांकि इसकी आवश्यकता नहीं थी लेकिन जांच रिपोर्ट की विश्वसनीयता के लिए उन्होंने ऐसा कदम उठाया। इसी तरह पीठ फिक्सिंग मामले की जांच के लिए सेवानिवृत न्यायमूर्ति ए. के. पटनायक समिति का गठन किया गया है।

 
तो हमें इन दोनों समितियों की जांच की अंतिम रिपोर्ट की प्रतीक्षा करनी चाहिए। उच्चतम न्यायालय द्वारा पुलिस से लेकर जांच एजेंसियों के प्रमुखों को बुलाकर समितियों को पूरा सहयोग का निर्देश देने के बाद यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसका दायरा कितना विस्तृत हो गया है। बिना पुलिस एवं जांच एजेंसियों के ऐसे मामलों की तह तक पहुंचा भी नहीं जा सकता। संभव है आने वाले समय में अनेक लोग इसकी चपेट में आएं। 


वास्तव में इन दोनों मामलों को साथ मिलाकर देखने से तस्वीर यही बनती है कि उच्चतम न्यायालय को भी भ्रष्ट और बेईमान तत्व परोक्ष रुप से अपनी गिरफ्त में लेने में सफल हो रहे हैं और ज्यादातर न्यायाधीशों तक को इसका पता भी नहीं है। आप हालात का अंदाजा इसी से लगाइए कि न्यायाधीशों की बैठक में तय हुआ कि संवेदनशील मामलों के फैसले आदि की टाइपिंग भी स्वयं की जाए क्योंकि पता नहीं कौन सहयोगी उसे बाहर लीक कर दे या उसे गलत तरीके से मीडिया को दे दे। 

पिछले दिनों देश के एक बड़े उद्योगपति के मामले में फैसले को गलत टाइप करके मीडिया को दे दिया गया था। इसका मतलब साफ है। वैसे न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कोई छिपा तथ्य नहीं है। किंतु उच्चतम न्यायालय को इससे मुक्त माना जाता था। अब यह मिथक भी टूटा है। बेईमान पूंजीशाहों से लेकर अनेक प्रकार के लॉबिस्ट, बिचौलिए, निहित स्वार्थी तत्वों का जाल इसके इर्द-गिर्द भी फैल चुका है। जाहिर है, इसकी सम्पूर्ण सफाई अनिवार्य है। 


 यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर मुख्य न्यायाधीश किन महत्वपूर्ण मुकदमों की बात कर रहे थे? राहुल गांधी द्वारा राफेल फैसले की पुनर्विचार याचिका स्वीकार करने के बाद दिए गए बयान पर आधारित मानहानि मामला, नरेन्द्र मोदी की बायोपिक वाली फिल्म को जारी करने या न करने, जमीन अधिग्रहण और सूचना का अधिकार उनके ऑफिस पर लागू होने या नहीं जैसे मामलों पर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ को सुनवाई करनी थी। तो इनमें किनका स्वार्थ हो सकता है?

 उच्चतम न्यायालय के वकीलों की असोसिएशन ने आरोप से निपटने के लिए मुख्य न्यायाधीश की ओर से अपनाई गई प्रक्रिया पर आपत्ति जताई है। असोसिएशन ने कहा है कि इस आरोप से कानून के तहत दी गई प्रक्रिया के अनुसार निपटना चाहिए। विमेन इन क्रिमिनल लॉ नाम की एक अन्य असोसिएशन ने तो जांच पूरी होने तक मुख्य न्यायाधीश के कार्य न करने की मांग की है। पता नहीं इन मांगों और सवालों के पीछे क्या सोच काम कर रहीं हैं। 

हां, न्यायमूर्ति गोगोई ने सफाई देने की जगह छुट्टी के दिन विशेष सुनवाई करवाने और उसमें शामिल होने का जो फैसला किया उससे सभी सहमत नहीं हो सकते। न्यायमूर्ति गोगोई उन चार न्यायाधीशों में शामिल थे जिन्होंने यह आरोप लगाया था कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा स्थापित न्याय प्रक्रिया का पालन नहीं कर रहे हैं। अगर यही सवाल उनके बारे में भी उठाया जा रहा है तो इसे एकबारगी गलत कहना कठिन है। 


वैसे यह मांग गलत है कि विशाखा गाइडलाइन के अनुसार कार्यक्षेत्र में महिलाओं के उत्पीड़न की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय की जो 11 सदस्यीय आंतरिक जांच समिति है उसे जांच सौंपा जाए। वस्तुतः मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक प्रमुख भी हैं इसलिए यह समिति उनकी जांच नहीं कर सकती। यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला का चरित्र भी संदिग्ध है। उस पर आरोप है कि उसने मुख्य न्यायाधीश से निकटता की बात करते हुए उच्चतम न्यायालय के समूह-डी में भर्ती कराने के नाम पर घूस लिए। जब नौकरी नहीं मिली तो उसने पैसे मांगे। पैसे वापस करने की जगह उसे धमकाया गया। इसकी प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है। पता नहीं जांच के साथ और क्या-क्या आरोप सामने आ जाएं। हो सकता है कई मामलों के फैसले के लिए धन का लेन-देन किया गया हो। 


वास्तव में पूरा मामला बहुत बड़ा है। इसलिए पूरे देश को संयम बरतने की आवश्यकता है। विशेष सुनवाई में न्यायमूर्तियों अरुण मिश्रा और संजीव खन्ना ने मीडिया से अनुरोध किया था कि वह जिम्मेदारी और सूझबूझ के साथ काम करे,  सत्यता की पुष्टि किए बिना महिला की शिकायत को प्रकाशित न करे। उन्होंने कहा कि हम कोई न्यायिक आदेश पारित नहीं कर रहे हैं लेकिन यह मीडिया पर छोड़ रहे हैं कि वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदारी से काम करे। बावजूद मीडिया के उसी धरे ने इस पर आ रही खबरों को प्रमुखता से प्रकाशित किया जो पहले चार न्यायाधीशों की पत्रकार वार्ता के बाद न्यायपालिका में सुधार का झंडा उठाए हुए था या जो राफेल मामले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर प्रश्न उठा रहा था। यह दुर्भाग्यपूर्ण और आपत्तिजनक रवैया है। 

आखिर इनके इस तरह के रवैये का कारण क्या है? मीडिया का यह धड़ा चाहता क्या है?  अगर न्यायपालिका का शीर्ष स्तंभ ही भ्रष्टाचारियों, अपराधियों के विषैले सांपों के फनों से घिर रहा है तो देश का क्या होगा? हम उच्चतम न्यायालय की कार्यप्रणाली को लेकर अनेक प्रश्न उठा सकते हैं। आरोप के बाद मुख्य न्यायाधीश के रवैये या कई मामलों में उनकी टिप्पणियों की आलोचना कर सकते हैं, पर यह समय उसका नहीं है। यह संविधान का अभिभावक माने गए शीर्ष संस्था को संकटमुक्त करने तथा उसकी साख एवं विश्वसनीयता को संदेहों से बाहर निकालने का वृहत्तर मामला है। 

जिस तरह से उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की बैठक में भय का माहौल व्याप्त था उससे स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। अगर स्वतंत्र न्यायपालिका को अस्थिर करने के लिए साजिश रची गई है तो इसका अंत ही होना चाहिए। 

अवधेश कुमार

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)