भोपाल- मध्यप्रदेश में 28 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ बीजेपी को अपने मौजूदा विधायकों द्वारा पार्टी बदलने और सीटे काटने के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि 2013 में चुने गए 165 में से 75-80 मौजूदा विधायकों की टिकटें काटने के बेहतरीन परिणाम भी बीजेपी को मिल सकते हैं। इसका फायदा उठाकर बीजेपी दुबारा सत्ता में वापसी कर सकती है। गौरतलब है कि आरएसएस ने भी इसी तरह की सिफारिश की थी।

पार्टी के पुराने महारथी जो अब बागी हो चुके हैं, मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। अकेले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ही भाजपा को मध्यप्रदेश में दुबारा सत्ता दिला सकती है। गौरतलब है कि इसी कारण प्रधानमंत्री आने वाले दिनों में पूरे राज्य में 11 सार्वजनिक रैलियों को संबोधित करेंगे।

बुंदेलखंड-बघेलखंड-विंध्य बेल्ट में जाति के आधार पर सीटों का निर्धारण हो सकता है। इन क्षेत्रों में जातिगत समीकरण ही किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि की जीत तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जहां पर कुल 62 सीटे हैं। उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के दतिया, दमोह, पन्ना, सागर और टिकमगढ़ जिले और उत्तर प्रदेश के झांसी, बांदा, हमीरपुर और जालौन जिले बुंदेलखंड कहलाते हैं। यह क्षेत्र कई वर्षों से गरीबी, बेरोजगारी, मौसमी प्रवासन और पानी की कमी से प्रभावित है।

क्षेत्र की इस स्थिति के लिए बीजेपी ही जिम्मेदार है क्योंकि क्षेत्र की 29 में 23 सीटों पर बीजेपी का कब्जा है। क्षेत्र के मतदाता 2008 से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर अपना विश्वास जताते आ रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी यहां के लोगों की आर्थिक स्थिति में उस तरह का बदलाव नहीं आया है। यही कारण है कि स्थानीय लोगों में मौजूदा विधायकों के खिलाफ गुस्सा है।

रीवा, सतना, सीधी, शाहडोल और सिंगरौली जिले बघेलखंड-विंध्य क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। इस क्षेत्र में विशेष जातियों का बहुत दबदबा है। यहां बीजेपी ने 34 सीटों पर अपना दमखम बना रखा है, लेकिन पार्टी से नाखुश लोग और जिन संभावित उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला, उनका भितरघात इस क्षेत्र में बीजेपी के लिए खासी टक्कर की संभावनाओं को प्रकट करता है।

ऐसा नहीं है कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की अंतिम उम्मीदवारों की सूची में किसी तरह की कोई कमी नहीं है, लेकिन क्षेत्र में इस बार बीजेपी को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
15 सालों से प्रदेश की सत्ता से गायब कांग्रेस वापसी के लिए कड़ी मेहनत कर रही है और हर तरह से दांव पेंच लगाकर सत्ता में वापसी करना चाहती है।

ओबीसी उम्मीदवारों के प्रतिनिधित्व में कमी और बीजेपी से आये 'पैराशूट' उम्मीदवारों को तत्काल टिकट देने से कांग्रेस की सत्ता वापसी की उम्मीदों को झटका लग सकता है। एमपीसीसी के सूत्रों का मानना है कि ओबीसी उम्मीदवारों में बड़े पैमाने पर कटौती घातक साबित हो सकती है, क्योंकि ओबीसी के 50% से ज्यादा मतदाता हैं। गौरतलब है कि प्रमुख ओबीसी नेता और पूर्व मध्यप्रदेश कांग्रेस प्रमुख अरुण यादव को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के खिलाफ बुधनी सीट से लड़ाना भी कई लोगों को उन्हें बली का बकरा बनाना लग रहा है।

ओबीसी नेताओं को नजरअंदाज करने का मुख्य कारण टिकट वितरण प्रक्रिया में ऊंची जाति के नेताओं का शामिल होना है। हालांकि चुनावी अभियान के लिए पैसा एक बड़ी समस्या हो सकती थी, इसलिए उन्हीं नेताओं को टिकट दिये गये जो पैसे वाले थे। चुनाव का अधिकतर खर्चा खुद उठा सकते थे और इस तरह के नेताओं में ऊंची जाति के ज्यादा हैं। एमपीसीसी प्रमुख कमल नाथ के पार्टी कार्यकर्ताओं को इस बात से कोइ फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उनका बॉस आर्थिक रूप से हमेशा उनके लिए खड़ा  रहता है। 

कांग्रेस पर भाजपा से आने वाले दलबदलु लोगों को टिकट देने का निर्णय भारी पड़ सकता है। इससे कांग्रेस के वो समर्थक भी नाराज हैं, जो कई वर्षो से कांग्रेस का साथ दे रहे थे और वफादारी के साथ पार्टी से जुड़े हुये थे।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण  तेंदुखेड़ (नरसिंहपुर) सीट से शराब और खनन माफिया डॉन संजय शर्मा को टिकट देना है। शर्मा बीजेपी के मौजूदा विधायक हैं, जिन्होंने कुछ अफवाहों और टिकट कटने के डर से भाजपा छोड़ दी थी। पिछले कई सालों से कांग्रेस शर्मा के खिलाफ अभियान चला रही थी, लेकिन इसके बावजूद उसने उन्हें तुरंत पार्टी में शामिल कर इसी सीट से उम्मीदवार बना दिया।

वहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के साले संजय सिंह को टिकट देना शर्मिंदगी की बात है। सिंह को वारासिवनी (बालाघाट) से उम्मीदवार बनाया गया है। सिंह को कांग्रेस की एक बड़ी उपलब्धी के रुप में देखा जा रहा है। वास्तव में सिंह हमेशा कमलनाथ के लिए वफादार साबित हुए हैं। सिंह ने एक बार खुले तौर पर कहा कि चौहान भले ही उनके जीजा क्यों न हो, लेकिन उनके नेता केवल नाथ ही हैं। 

होशंगाबाद सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में पूर्व राज्य मंत्री और बीजेपी के अनुभवी सरताज सिंह को टिकट देना कोई बड़ी बात नहीं है, बल्कि सिवनी-मालवा (होशंगाबाद) के मौजूदा विधायक सरताज को पार्टी में औपचारिक प्रवेश से पहले ही नामांकन पत्र प्राप्त हो चुका था।

78 वर्षीय अपराजित सरताज सिंह़, जो एक ही सीट से दो बार जीते हैं तथा 1996 में होशंगाबाद लोकसभा सीट से कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह को हराकर इतिहास बना चुके हैं, को बीजेपी द्वारा तीसरी वार विधायक के लिए टिकट नहीं देना गलत था।
क्या मतदाता किसी ऐसे व्यक्ति के साथ अपना विश्वास बनाए रखेंगे, जिसने केवल टिकट के लिए अपनी तीन दशक लंबी वफादारी और विचारधारा को बदल दिया है। यह सवाल कई कांग्रेस नेता पूछ रहे हैं। सरताज को इस बार कड़ा मुकाबला मिलने की उम्मीद है क्योंकि इस बार उनके प्रतिद्वंद्वी  विधानसभा अध्यक्ष सीताशरन शर्मा हैं।

मालवा बेल्ट में कांग्रेस के आदिवासी वोट बैंक का विभाजन कांग्रेस के लिए समस्या उत्पन्न कर सकता है। क्योंकि जय आदिवासी युवा शक्ति (जेएवायएस) के संस्थापक डॉ हीरालाल द्वारा कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने से उनके समर्थकों में गुस्सा है और आदिवासी वोटर हीरालाल के खिलाफ भी मतदान कर सकते हैं। वे कांग्रेस के खिलाफ भी जा सकते हैं।

हीरालाल के इस कदम के बाद 30 जेएवायएस कार्यकर्ता स्वतंत्र उम्मीदवार के रुप में चुनावी मैदान उतरे हैं। अगर यह कुछ सौ या हजार वोटों भी पाते हैं, तो इसका सीधा नुकसान कांग्रेस का ही होगा।  यदि बीजेपी उन्हें अपने पक्ष में ले आती है, तो इसमें फायदा बीजेपी का होगा।

जो गलतियां कांग्रेस ने की हैं लगभग वही गलतियां बीजेपी ने भी की हैं। इसलिये यह कहा जा सकता है कि दोनों ही पार्टीयों के उम्मीदवारों की सूचियां लगभग एक दूसरे के समान हैं। लेकिन भाजपा की जीत पूरी तरह से पीएम मोदी की रैलियों पर ही निर्भर करती है।