उत्तर प्रदेश में विपक्ष की एकजुटता ने भाजपा समर्थकों को भी सजग किया है। यही स्थिति दक्षिण के राज्य कर्नाटक में भी थी। पश्चिम बंगाल में तृणमूल के नेता-कार्यकर्ता इतने परेशान क्यों हैं? चुनाव में चुनौती नहीं होती तो वे इस तरह हिंसा पर उतारु नहीं होते। उड़ीसा में भी भाजपा ज्यादातर सीटों पर बीजद से सीधे मुकाबले में हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार के गढ़ बारामती तक में उनकी बेटी सुप्रिया सुले को भारी चुनौती मिली। चुनाव के दौरान भाजपा एवं शिवसेना के नेताओं-कार्यकर्ताओं में अद्भुत एकता दिखी है। चुनाव की ये सारी प्रवृत्तियां किस ओर इशारा कर रही हैं?
नई दिल्ली: जैसे-जैसे चुनाव प्रक्रिया आगे बढ़ रहा है, मतदान चरण पूरे हो रहे हैं, देश और दुनिया की उत्कंठा बढ़ती जा रही है कि आखिर मतदाताओं का रुझान क्या है। विविधताओं से भरे देश में, जहां एक साथ इतनी पार्टियां चुनाव मैदान में हों, जिनमें ज्यादातर का अपने-अपने क्षेत्रों में जनाधार भी हों और सब एक-एक सीट जीतने के लिए जोर लगा रहे हों तो फिर पूर्व आकलन जरा कठिन हो जाता है।
भारतीय चुनावों को लेकर बड़े-बड़े सेफोलोलिस्ट भी जोखिम उठाने से बचते हैं। किंतु इसका यह मतलब नहीं कि अगर आप जमीन पर नजर रखें तथा समाज के रुझानों को निरपेक्ष भाव से समझने की कोशिश करें तो एक मोटा-मोटी पूर्व आकलन नहीं कर सकते हैं।
कुछ बातें तो पहले दिन से स्पष्ट है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग एक संगठित ईकाई के रुप में मैदान में उतरा था तथा पांच-छः राज्यों को छोड़ दें तो उसका अंकगणित विपक्ष पर भारी था। इसे कम करने के लिए विपक्ष को मुद्दों और रणनीति के स्तर पर इतना सशक्त प्रहार करना चाहिए था जिससे मतदाता नए सिरे से सोचने को बाध्य हो जाएं।
अभी तक के पूरे चुनाव अभियान में राष्ट्रीय या राज्यों के स्तर पर इस तरह का सशक्त चेहरा विपक्ष का सामने नहीं आया है। विपक्ष की कृपा से ही चुनाव का मुख्य मुद्दा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बने हुए हैं। इसे कोई चाहे विचारधारा का जितना छौंक दे दे, पूरा चुनाव नरेन्द्र मोदी हटाओ बनाम नरेन्द्र मोदी को बनाए रखो में परिणत हो गया है।
कुछ क्षेत्रों में स्थानीय मुद्दों एवं उम्मीदवार का भी प्रभाव होगा, किंतु राष्ट्रीय स्तर पर पूरे चुनाव की परिधि नरेन्द्र मोदी के ही चारों ओर सिमट गई है। शेष सारे विषयों का स्थान उसके बाद है। भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यही चाहता था। मतदाताओं को यदि देश के प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी बनाम अन्य में से चुनाव करना हो तो उसकी उंगली किस बटन को दबाएगी? इसे ही ध्यान रखते हुए मोदी ने मजबूत सरकार बनाम मजबूर सरकार का नारा दिया जिसने हर वर्ग के मतदाताओं को नए सिरे से सोचने को प्रेरित किया।
ध्यान रखिए, 2014 के आम चुनाव में भी नरेन्द्र मोदी धीरे-धीरे प्रमुख मुद्दा बन गए थे और उसका परिणाम क्या हुआ सबके सामने है। इस चुनाव अभियान के दौरान एक महत्वपूर्ण बात की ओर हर विश्लेषक का ध्यान जा रहा है कि मोदी सरकार के विरुद्ध कहीं प्रकट सत्ता विरोधी लहर नहीं है। किसी सांसद या मंत्री के खिलाफ कुछ असंतोष अवश्य कई जगह सामने आए हैं, पर सरकार विरोधी तीव्र रुझान की झलक कहीं नहीं दिखी है। यह एक बड़ा कारक है जो चुनाव परिणाम का निर्धारक बन रहा है।
तीसरे, विपक्ष एव मीडिया का एक वर्ग अवश्य राष्ट्रवाद, सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषयों का यह कहकर उपहास उ़ड़ाता रहा कि ये मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाने की रणनीति है, पर आप कहीं भी दल निरपेक्ष मतदाता से बात करिए तो साफ हो जाएगा कि उसके लिए ये मुद्दे मायने रखते हैं। पुलवामा आतंकवादी हमले में सीआरपीएफ जवानों का शहीद होना तथा उसके बाद पाकिस्तान की सीमा में घुसकर हवाई बमबारी ने सम्पूर्ण देश के मनोविज्ञान को प्रभावित किया।
विपक्षी नेताओं ने काफी चतुराई से चुनाव प्रचार में इसे नहीं उठाया किंतु यह मानना गलत होगा कि समय बीतने के साथ लोगों की स्मृति पटल से बालाकोट एवं पाक अधिकृत कश्मीर के आतंकवादी ठिकानों पर बमबारी का पराक्रम गायब हो गया होगा। तीसरे चरण के मतदान के पूर्व श्रीलंका में हुए भीषण आतंकवादी हमलों ने भी लोगों को यह बताया कि आतंकवाद का खतरा आसन्न है जिसे कम करके आंकना नादानी होगी।
इस तरह राष्ट्रवाद एवं सुरक्षा चुनाव में मुद्दा बना रहा है। आप अगर लोगों से बात करिए तो जवाब यही मिलेगा कि देश बचेगा तभी न बाकी चीज। आपको यह कहते भी लोग मिल जाएंगे कि यदि मोदी की जगह कोई दूसरा प्रधानमंत्री होता तो कतई पाकिस्तान को आतंकवादी हमले का ऐसा जवाब नहीं दे पाता। तो राष्ट्रीय सुरक्षा एवं आतंकवाद विरोधी के प्रतीक के रुप में नरेन्द्र मोदी को देखने वाला वर्ग है।
चौथे, लंबे समय बाद इस चुनाव में जम्मू कश्मीर भी एक मद्दा बना है। पीडीपी से संबंध तोड़ने के बाद केन्द्र सरकार ने जिस तेजी से जम्मू कश्मीर में कट्टरवाद, अलगाववाद एवं आतंकवाद के खिलाफ सख्त कार्रवाई की उसका सकारात्मक संदेश गया। लोग कह रहे हैं कि अगर मोदी सरकार रह गई तो कश्मीर के भारत विरोधी जेलों के अंदर होंगे, आतंकवाद खत्म होगा तथा वहां शांति स्थापित हो जाएगी। कश्मीर से धारा 35 ए हटाने की भाजपा की स्पष्ट घोषणा का भी असर है। दूसरी ओर विपक्ष में इन मामलों पर कांग्रेस के रुख से भी भाजपा को लाभ मिल रहा है। कांग्रेस को इससे अति वामपंथियों तथा एक्टिविस्टों का वोट मिल जाए लेकिन जनता के दिमाग में यह बात घर कर रही है कि अगर ये सत्ता में आए तो वहां सुरक्षा बलों की संख्या कम हो जाएगी, उनके अधिकार कम कर दिए जाएंगे, भारत विरोधी अलगाववादियों को फिर से महत्व मिलेगा।
कश्मीर से नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी दोनों ने जिस तरह की अतिवादी भाषायें बोलीं हैं उनका भी असर है। दोनों ने 35 ए एवं धारा 370 के हटाने से कश्मीर के भारत से अलग होने का बयान दिया है। उमर ने फिर से कश्मीर के लिए अलग से प्रधानमंत्री एवं सदर-ए-रियासत की ओर लौटने का बयान दे दिया। इन सबके खिलाफ देशभर में गुस्सा पैदा हुआ। कांग्रेस ने उमर के बयान का खंडन तक नहीं किया। फलतः कुछ कारणों से भाजपा के मूल मतदाताओं में यदि मोदी सरकार को लेकर थोड़ा-बहुत असंतोष भी रहा होगा वो भी सक्रिय होने के लिए मजबूर हो गए हैं। कश्मीर की प्रतिगूंज कम या ज्यादा आपको हर जगह सुनाई देगी।
विपक्ष ने मोदी के विरुद्ध राफेल को एक बड़ा मुद्दा बनाने की रणनीति अपनाई। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने चौकीदार चोर है का नारा खूब लगवाया है। किंतु, तीसरे चरण के मतदान के पूर्व राहुल गांधी द्वारा उच्चतम न्यायालय में खेद प्रकट करने का शपथ पत्र कांग्रेस के लिए उल्टा पड़ गया है। संदेश यह गया है कि राहुल ने उच्चतम न्यायालय को माध्यम बनाकर मोदी को गलत तरीके से चोर कहा है। उच्चतम न्यायालय ने खेद को पर्याप्त न मानते हुए मानहानि का नोटिस जारी कर दिया है।
चुनाव के बीच इतनी बड़ी घटना लोगों पर असर न डाले यह संभव है क्या? वैसे भी मोदी ने चौकीदार चोर है के समानांतर मैं भी चौकीदार को इतना उपर उठा दिया कि भाजपा समर्थक एवं कार्यकर्ता अपने नाम के साथ चौकीदार लगाने लगे। जमीन पर राफेल का मुद्दा कहीं नहीं दिखा है।
इसी तरह मोदी पर विपक्ष गरीबों की अनदेखी करने, किसानों के लिए कुछ न करने, रोजगार के अवसर पैदा न करने तथा आर्थिक मोर्चे पर नाकामियों का आरोप लगा रहा है। विपक्षी नेताओं के हर भाषण, टीवी के हर डिबेट में यह इतनी तेजी से बोला जा रहा है कि विश्लेषकों को भी ये बड़ा मुद्दे लगते है। इनका थोड़ा असर होगा। किंतु प्रधानमंत्री आवास योजना से जिसका घर बना है, जिसके घर में बिजली लगी है, जिसे रसोई गैस मिला है, जिसे मुद्रा योजना से कर्ज प्राप्त हुआ है, जिस किसान के लिए सिंचाई सुविधा सुलभ हुई है, जिसे बिजली प्राप्त हो रही है, डीजल पंप की जगह जिसे सोलर पंप मिल गया है, जिसे स्वायल हेल्थ कार्ड मिला है, जिसे पशुपालन के लिए कर्ज और सब्सिडी मिल चुका है, जिसके फसलों की खरीद पहले से आसान तरीके से हो रही है तथा मूल्य भी ठीकठाक मिल रहे हैं वो प्रचार से प्रभावित नहीं हो सकते। उनमें जो किसी पार्टी या नेता से बंधे नहीं हैं उनका वोट किसको जा रहा होगा यह आसानी से समझा जा सकता है।
मध्यप्रदेश एवं राजस्थान विधानसभा चुनावों में पराजय के बावजूद इन्हीं कारणों से भाजपा को सम्मानजनक मत एवं सीटें प्राप्त हो सकीं। व्यापारी वर्ग की नाराजगी की काफी बात हुई है। जिसे विमुद्रीकरण से क्षति हुई या जिसके लिए जीएसटी थोड़ी समस्या है वो शायद खिलाफ जाएं, लेकिन चुनाव आते-आते व्यापारी संगठनों की भाषा बदलने लगी थी। अब उनकी ओर से आ रहे प्रेस वक्तव्यों से रुझान साफ देखा जा सकता है कि उनका बहुमत किसको वोट कर रहा है।
वास्तव में अभी तक संपन्न चुनावों की सम्पूर्ण प्रवृतियों का आकलन यह साफ करता है कि विपक्ष का राष्ट्रव्यापी शोर चाहे जितना हो, धरातल पर वैसी स्थिति नहीं है। किसी क्षेत्र में मतदान प्रतिशत थोड़ा कम होने के आधार पर कोई निष्कर्ष मत निकालिए। कुल मिलाकर पिछले आम चुनाव के रिकॉर्ड मतदान से अभी तक दो प्रतिशत से ज्यादा मतदान हो रहा है।
गुजरात में मतदान का 52 वर्ष का रिकॉर्ड टूटा। तो क्या वे लोग भाजपा के खिलाफ मतदान करने निकले थे? 2017 के विधानसभा चुनाव में मिली कड़ी टक्कर के बाद ही मोदी और अमित शाह गुजरात को संभालने में लग गए थे। भाजपा की रणनीति थी कि इस बार मत प्रतिशत बढ़ाना है। इसलिए शाह चुनाव तक लगातार गुजरात जाते रहे।
जिस उत्तर प्रदेश में विपक्ष की एकजुटता सबसे बड़ी चुनौती मानी जा रही है वहां विरोधी वोटों की एकजुटता के प्रचार ने भाजपा समर्थकों को भी सजग किया है तथा वो भी चुनाव अभियान एवं मतदान के लिए निकल रहे हैं।
यही स्थिति दक्षिण के राज्य कर्नाटक में भी थी। जद-से एवं कांग्रेस के गठबंधन ने भाजपा को ज्यादा संगठित और सक्रिय किया। पश्चिम बंगाल में तृणमूल के नेता-कार्यकर्ता इतने परेशान क्यों हैं? चुनाव में चुनौती नहीं होती तो वे इस तरह हिंसा पर उतारु नहीं होते। भाजपा ने ममता सरकार के खिलाफ सीधा मोर्चा लिया है और जनता का उसकी ओर रुझान है। भाजपा इस बार पश्चिम बंगाल में काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही है इससे कोई भी सेफोलोजिस्ट इन्कार नहीं कर रहा।
उड़ीसा में भी भाजपा ज्यादातर सीटों पर बीजद से सीधे मुकाबले में हैं। महाराष्ट्र को लेकर जो थोड़ी आशंका थी वो भी मतदान के साथ कमजोर पड़ी हैं। शरद पवार के गढ़ बारामती तक में उनकी बेटी सुप्रिया सुले को भारी चुनौती मिली। चुनाव के दौरान भाजपा एवं शिवसेना के नेताओं-कार्यकर्ताओं में अद्भुत एकता दिखा है। इसमें महाराष्ट्र के 2014 से अलग परिणाम आने की संभावना नहीं व्यक्त की जा सकती।
तो चुनाव की ये सारी प्रवृत्तियां किस ओर इशारा कर रही हैं? और दो दिनों का वारणसी का कार्यक्रम तथा उसके पहले फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के साथ प्रधानमंत्री के साक्षात्कार का भी मनोवैज्ञानिक असर है।
वास्तव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी रोड शो तथा नामांकन दाखिल करने के साथ भाजपा एवं राजग ने अगले चरणों के लिए नए सिरे से प्रचार अभियान आरंभ किया। इससे अलग किस्म का माहौल बना है। इससे भी मतदान प्रभावित हो रहे है। अंतिम चरण तक भाजपा के मुख्य जनाधार वाले क्षेत्रों को देखते हुए यह सही चुनावी रणनीति थी।
कांग्रेस या अन्य दल इसके समानांतर अलग से रणनीति नहीं बना पाए। उल्टे प्रियंका वाड्रा के वाराणसी से चुनाव न लड़ाने के निर्णय का भी संदेश अच्छा नहीं गया है। 2017 के विधानसभा चुनावों में सफलता के बाद कांग्रेस 2018 के आरंभ तक जितना आश्वस्त दिख रही थी वो भाव अब उनके नेताओं के चेहरे से गायब हो रहे हैं।
क्षेत्रीय दलों में कुछ अवश्य अच्छा कर रहे हैं लेकिन वो सभी विपक्षी खेमे के नहीं हैं। उदाहरण के लिए, आंध्रप्रदेश में वाइएसआर कांग्रेस तथा तेलांगना में टीआरएस का रास्ता अलग है। तो कुल मिलाकर पूरा परिदृश्य हमारे सामने है। हम उसे स्वीकार करें या नहीं। निस्संदेह, परिणाम के पूर्व किसी तरह की भविष्यवाणी जोखिम भरी होती है, किंतु मदताता संकेत दे रहा है जिसे निरपेक्ष होकर केवल समझने की आवश्यकता है। आपको बहुत कुछ साफ दिख जाएगा।
अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)
Last Updated Apr 28, 2019, 12:33 PM IST