कोलकाता में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में आयोजित रोड शो में जितनी संख्या में लोग उमड़े थे उससे पता चल रहा था कि वहां का राजनीतिक वातावरण बदल रहा है। किंतु वह रोड शो अपने गंतव्य विवेकानंद हाउस तक पहुंचता उसके पहले ही कॉलेज स्ट्रीट पर कुछ लोग काले झंडे लेकर विरोध कर रहे थे। लेकिन अचानक अमित शाह की गाड़ी पर डंडा फेंका गया। उसके बाद पथराव हुआ तथा आगजनी की कोशिशें हुईं। यह रोड शो को बाधित करने का प्रयास था।
नई दिल्ली: पूरे देश में पश्चिम बंगाल अकेला ऐसा राज्य है जहां इतनी ज्यादा राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुईं। वास्तव में पश्चिम बंगाल की पूरी चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। पूरे देश में हिंसा और बूथ कब्जे की सबसे डरावनी तस्वीरें कहीं से आईं हैं तो वो पश्चिम बंगाल ही है।
भाजपा, वामदल एवं प्रदेश की कांग्रेस ईकाई तीनों का तृणमूल कांग्रेस के बारे में एक ही स्वर है- पश्चिम बंगाल से लोकतंत्र गायब है, तृणमूल विरोधी मतदाताओं के लिए निर्भीक होकर मतदान करना अत्यंत कठिन है। चुनाव आरंभ होने के पूर्व उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि पश्चिम बंगाल में बहुत कुछ अच्छा नहीं चल रहा है।
एक दौर का चुनाव होने के बाद चुनाव आयोग के विशेष पर्यवेक्षक ने कहा कि पश्चिम बंगाल की आज वही स्थिति है जो डेढ़ दशक पूर्व बिहार की थी।
दूसरे चरण में जो दृश्य और खबरें आईं उनसे साफ हो गया कि स्थानीय पुलिस एवं प्रशासन वहां निष्पक्ष मतदान नहीं करा सकता। तृणमूल के कार्यकर्ताओं के भय से या फिर अंतर्मन से वे चुनावी धांधली में सहयोगी की भूमिका में हैं। यहां तक कि तृणमूल के कार्यकर्ता यदि हिंसा कर रहे होते हैं तो वे आंखे मूंद लेते हैं। चुनाव आयोग ने अपने विशेष पर्यवेक्षक की रिपोर्ट पर प्रदेश का चुनाव 92 प्रतिशत केन्द्रीय बलों की निगरानी में कराने का फैसला किया। किंतु तीसरे चरण में 50 प्रतिशत ही तैनाती हो सकी।
चौथे चरण से 100 प्रतिशत केन्द्रीय बलों की तैनाती का फैसला हुआ जो पांचवे चरण में लागू हो सका। इस समय वहां का चुनाव पूरी तरह केन्द्रीय बलों की सुरक्षा में हो रहा है। आज तक किसी भी राज्य में 100 प्रतिशत केन्द्रीय बल की तैनाती नहीं करनी पड़ी थी। इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि वहां स्थिति कितनी डरावनी है।
किंतु केन्द्रीय सुरक्षा बल मतदान प्रक्रिया तक तो लोगों को सुरक्षा दे सकते हैं। उसके बाद उन्हें स्थानीय लोगों और प्रशासन के साये में ही रहना है। आप देहात में या शहरों के उन मुहल्लों में चले जाइए जहां दूसरे दलों के समर्थक हैं आपको उनके डर का अहसास हो जाएगा। उनका भय यही है कि केन्द्रीय बलों के लौटने के बाद उनके साथ हिंसा हो सकती है। दो वर्ष पूर्व हुए पंचायत चुनाव में यही तो हुआ। तृणमूल के प्रभाव वाले क्षेत्रों में जिन लोगों ने पर्चा डाला उन पर जगह-जगह हमले हुए, हजारों को पर्चा दाखिल ही नहीं करने दिया गया। यहां तक कि भारी संख्या में जीते हुए प्रतिनिधियों को तृणमूल के आतंक से मूल स्थान छोड़कर भागना पड़ा।
मीडिया की रिपोर्ट विपक्ष के इस आरोप की पुष्टि करते हैं कि तृणमूल के नेता सीधी धमकी देते हैं कि वोट उनकी पार्टी को ही देना है, प्रदेश में ममता बनर्जी ही रहने वाली है। अगर नहीं डाले तो फिर समझ लेना कि आपके साथ क्या होगा।
एक टेलीविजन चैनल ने रायगंज क्षेत्र के एक गांव से दिखाया कि किस तरह मतदाताओं के पहुंचने के पूर्व ही उनके मत डाले जा चुके थे। वहां एक समुदाय की संख्या ज्यादा थी। उस समुदाय ने दूसरे समुदाय से कहा कि आपलोग मतदान केन्द्र पर मत जाना आपका मत डाल दिया जाएगा। साहस करके कुछ लोग आए तो वाकई उनका मत डाला जा चुका था। वहां मतदानकर्मी ऐसा क्यों हुआ इसका जवाब देने की स्थिति में नहीं थे। पता नहीं ऐसी स्थिति कहां-कहां हुई होगी। विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं-समर्थकों के घरों पर हमला, आगजनी, उनके साथ मारपीट व झूठे मुकदमों की असंख्य घटनाएं वहां हो रहीं हैं।
कुछ घटनाएं जो हमारे सामने आईं उनको एक बार याद करिए। इतनी संख्या में केन्द्रीय सुरक्षा बलों के बावजूद छठे चरण में भी कई क्षेत्रों में भारी पथराव, आगजनी, हमले तथा बमबारी की खबरें आईं। मेदिनीपुर जिले के एक मतदान केन्द्र पर उपद्रव और पथराव हुआ। घाटल से भाजपा उम्मीदवार भारती घोष पर तृणमूल समर्थकों ने हमला कर दिया। उनकी कार क्षतिग्रस्त कर दी गई। उनकी सुरक्षा में लगे दो जवान घायल हए। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष पर भी हमला हुआ।
छठे चरण के मतदान शुरु होने के पहले झारग्राम में भाजपा के बूथ कार्यकर्ता रामेन सिंह का शव मिला था। पूर्वी मेदिनीपुर के भगवानपुर में 11 मई की रात दो कार्यकर्ताओं को गोली मार दी गई जिनकी हालत गंभीर है। यहां मतदान केन्द्र पर देसी बम से हमला किया गया।
पांचवें चरण के मतदान के दौरान बैरकपुर से भाजपा के उम्मीदवार अर्जुन सिंह की जमकर पिटाई की गई। वे तृणमूल के विधायक थे। अब भाजपा में हैं। हर चरण में हिंसा हो रही है। पहले चरण के मतदान के दिन अलीपुरदुआर और कूचबेहार में जगह-जगह हिंसक झड़पें होतीं रहीं जिसे नियंत्रित करने में पुलिस नाकमायब थी।
वाममोर्चा और कांग्रेस तो तृणमूल के सामने नहीं टिक सके, क्योंकि अब उनकी संख्या ज्यादा बची नहीं, किंतु भाजपा समर्थकों ने जगह-जगह मोर्चा अवश्य लिया। वाममोर्चा के उम्मीदवार गोविंद राय पर जानलेवा हमला हआ और उनकी गाड़ी की जैसी दुर्दशा हुई उसकी तस्वीरें हमारे सामने आ चुकी हैं।
दूसरे चरण में हमने देखा कि रायगंज के इस्लामपुर में माकपा के मोहम्मद सलीम पर किस तरह हमला हुआ। उनके समर्थकों ने बूथ कब्जा की शिकायत की थी जिस कारण वे वहां पहुंचे। तृणमूल समर्थकों के हाथ में जो भी मिला या था उसी से उनकी कार पर हमला किया गया। एक उम्मीदवार को स्थानीय पुलिस सही सुरक्षा उपलब्ध नहीं करा पाई थी। किसी तरह पुलिस आई और उनको घेरे में लिया।
तीसरे चरण के मतदान के दौरान तो बम फेंकने का दृश्य पूरे देश ने देखा। एकदम साधारण दिखने वाले युवक बम फेंक रहे थे। माकपा, भाजपा एवं कांग्रेस तीनों पार्टियों के लोगों पर हमले हुए। उसी दिन मुर्शिदाबाद से यह खबर आई कि तृणमूल के लोगों ने एक कांग्रेस समर्थक की पीट-पीटकर हत्या कर दी है।
चौथे चरण के दौरान आसनसोल में केन्द्रीय मंत्री एवं उम्मीदवार बाबुल सुप्रियो की कार पर हुए हमले के दृश्य भी पूरे देश ने देखा। वे भी मतदान केन्द्रों पर जबरन मत डलवाए जाने की शिकायत सुनने के बाद वहां पहुंचे थे। वैसे कुछ जगह हिंसा का शिकार तृणमूल के समर्थक भी हुए, लेकिन केवल वहीं जहां उनकी संख्या कम थी और ऐसी घटनाओं की संख्या अत्यंत कम है।
यह बात आसानी से कह दी जाती है कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं, यह तो वर्षों से हो रहा है। पहले वाममोर्चा के लोग यही करते थे, उसके पहले कांग्रेस करती थी और आज तृणमूल ने उसका स्थान ले लिया है। है तो यह सच।
नक्सलवाड़ी आंदोलन को कुचलने के लिए कांग्रेस के सिद्धार्थशंकर राय ने किस तरह क्रूरता से दमन कराया उसका पूरा चिट्ठा सामने आ चुका है। कई हजार लोग उस समय मार डाले गए। वाममोर्चा सरकार आई तो उसने प्रतिशोध के भाव में काम करना आरंभ किया। राजनीतिक हिंसा का एक लंबा दौर चला पश्चिम बंगाल में। निजी स्तर पर शोध करने वालों का कहना है कि पश्चिम बंगाल में कम से कम 60 हजार राजनीतिक हत्यायें हुईं हैं। अन्य कोई राज्य इसके सामने नहीं ठहरता।
तृणमूल कांग्रेस ने सत्ता में आने के बाद वामदलों के कारनामों की कुछ फेहरिस्त विधानसभा के रिकॉर्ड पर लाया जिनमें एक यह भी था कि उनके 1977 से 2007 तक के कार्यकाल में 28,000 राजनीतिक कत्ल हुए। नंदीग्राम एवं सिंगूर के आंदोलन में वीडियो सामने आया जिसमें पुलिस के साथ माकपा के नेता हैं और वो जिधर इशारा कर रहे हैं उधर गोली चलाई जा रही है।
लेकिन जो पहले हुआ उसके आधार पर आज की हिंसा को सही नहीं ठहराया जा सकता। इसका मतलब तो हुआ कि कोई आए पश्चिम बंगाल ऐसा ही रहेगा। वास्तव में पश्चिम बंगाल की सत्ता संरक्षित और प्रायोजित हिंसा लोकतंत्र के नाम पर सबसे बड़ा धब्बा बन चुका है। चुनाव आयोग को इसका ध्यान पहले से रखना चाहिए था। हिंसा का कुछ अंश सामने आया है, सारे नहीं। दूसरे, देहातों या मोहल्लों में अन्य पार्टियों के समर्थकों को डराकर यदि चुपचाप ईवीएम के बटन एक पक्ष में दबा दिए जा रहे हों तो वह भी हिंसा ही है।
जिस तरह के दृश्य वहां से आ रहे हैं उनका निष्कर्ष यही है कि राजनीतिक दलों ने वहां समाज का चरित्र ही हिंसा का बना दिया है। सामान्य आदमी भी यदि हाथों में बांस, लाठी, कटार, खंभे लेकर विरोधियों को मारने दौड़ रहा है तो इसका अर्थ और क्या हो सकता है? अगर समाज का चरित्र राजनीतिक हिंसा का बना दिया जाए तो उसे समाप्त कर पाना कठिन होता है। भाजपा वहां पहले केवल नाममात्र की थी, लेकिन उसका जनाधार तेजी से बढ़ा है। पंचायत चुनाव में उसने दूसरा स्थान प्राप्त किया। भाजपा पश्चिम बंगाल में बेहतर करने की उम्मीद कर रही है। इससे तृणमूल के अंदर खलबली है।
दोनों बिल्कुल दो विचार ध्रुवों पर खड़े हैं। भाजपा ने ऐलान किया है कि सत्ता में आने के बाद घुसपैठियों को बाहर निकालेंगे, नागरिकता कानून बनाएंगे तथा नेशनल सिटीजनशीप रजिस्टर पूरा करेंगे। तृणमूल ने इसे वहां के अल्पसंख्यको के खिलाफ बताकर उनको पूरी तरह भड़काया है। इस कारण भी वहां का वातावरण तनावपूर्ण है।
कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल केवल चुनाव ही नहीं भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। यह चुनौती पहले भी रही है। इसमें आक्रामकता थोड़ी ज्यादा हुई है और पात्र बदल गए हैं। पहले मीडिया के वामपंथी रुझान के कारण पश्चिम बंगाल की चुनावी धांधली, हिंसा तथा राजनीतिक हत्यायें इस तरह सुर्खियां नहीं बनतीं थीं। अब चूंकि तृणमूल के लोग मीडिया पर भी हमला करने लगे हैं इसलिए बहुत कुछ सामने आ रहा है। इसमंें चिता का विषय यही है कि जो ममता बनर्जी उस हिंसा के खिलाफ संघर्ष करके आगे आईं, स्वयं वाम हिंसा की अनेक बार शिकार हुईं, मरते-मरते बचीं, उनके अनेक कार्यकर्ता और समर्थक मारे गए उनसे हिंसा की संस्कृति को बदलने की उम्मीद थी। किंतु दुर्भाग्य, अपने स्वभाव के कारण उन्होंने हिंसा की संस्कृति को और ज्यादा बढ़ाने की भूमिका निभाई है।
अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)
Last Updated May 17, 2019, 6:26 PM IST