राहुल गांधी संसद में दूसरे सबसे बड़े दल कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। इस नाते सरकार की आलोचना,उस पर अरोप लगाना तथा उससे जवाब तलब करना उनका अधिकार है और राजनीतिक भूमिका भी। किंतु इस अधिकार और भूमिका के साथ गंभीर जिम्मेदारी निहित है। राहुल गांधी के व्यवहार को देखकर दुख के साथ यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वो इस गंभीर जिम्मेदारी का पालन नहीं कर रहे हैं। 

यह कैसी राजनीति है? वो राफेल लड़ाकू विमान सौदे पर अभी तक जो कुछ बोले हैं उनका तथ्यों से कोई संबंध नहीं है यह बार-बार साबित हो रहा है किंतु वे उससे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। एक समाचार पत्र में आठ फरबरी को राफेल सौदे पर बातचीत के बीच उप रक्षा सचिव का पत्र प्रकाशित हुआ। उसे लेकर राहुल सुबह-सुबह सामने आ गए। 

उन्होंने अपना पुराना राग अलापना शुरु कर दिया-फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद जी ने कहा कि भारत का प्रधानमंत्री चोर है.... उसने हमको कहा कि आप अनिल अंबानी की जेब में 30 हजार करोड़ रुपया डाल दो... कॉन्ट्रैक्ट से एचएएल को बाहर निकालो और अनिल अंबानी को दे दो.... अब रक्षा मंत्रालय ने भी साबित कर दिया। इस पत्र से पता चलता है कि प्रधानमंत्री ने रक्षा मंत्रालय को नजरअंदाज कर खुद सौदा किया। सोवरन गारंटी को भी खत्म कर दिया। इससे बड़ा प्रमाण चौकीदार के चोर होने का और कुछ हो ही नहीं सकता। 


राहुल गांधी पिछले करीब ढाई सालों से राफेल का यह राग अलाप रहे हैं। अभी भारत के लोगों ने राफेल को देखा नहीं है लेकिन राहुल गांधी लोगों को राफेल सुनाते रहते हैं। 

यह बात अलग है कि अभी तक उन्होंने किसी आरोप के पक्ष में कोई सबूत पेश नहीं किया। कर भी नहीं सकते। अगर पूरा राफेल सौदा करीब 59 हजार करोड़ रुपए का है तो 30 हजार करोड़ रुपया कंपनी किसी की जेब मंे कैसे डाल सकता है? इस पर आप चाहे खीझीए, हंसिए, गुस्सा करिए राहुल राग जारी रहेगा। जब 36 राफेल विमान पूरी तरह तैयार अवस्था में खरीदा जाना है तो किसी को साझेदार बनाने का प्रश्न कहां से पैदा होता है। 

विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता को अगर इतना भी नहीं पता कि ऑफसेट साझेदार और विमान निर्माण साझेदार दोनों दो चीजें हैं तो फिर हम अपना सिर ही पीट सकते हैं। भारत ने अपनी रक्षा खरीद में यह शर्त लगाई है कि हम जितनी राशि की सामग्री खरीदते हैं उसके पचास प्रतिशत मूल्य का सामान कंपनी को भारत से खरीदना होगा। यही आफॅसेट नीति है। 

तो इस नाते राफेल बनाने वाली कंपनियों को भारत कुछ साझेदार बनाने हैं। उसके लिए भी विमान आपूर्ति के बाद लंबा समय उनके पास होता है। इसके लिए राफेल विमान बनाने वाली तीनों कंपिनयों जिसका नेतृत्व दस्सॉल्ट करता है उसने अभी तक 72 साझेदारी पर हस्ताक्षर किया है जिसमें से अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस एक है। इसकी कुल साझेदारी अभी 800 करोड़ के आसपास है जिसमें से 51 प्रतिशत राशि रिलायंस डिफेंस को निवेश करना है। आगे अगर इनके साझे उत्पादों का विस्तार होता है तो पूंजी बढ़ती रहेगी। यह किसी कारोबार की स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसका बाद में ऑफसेट अनिवार्यता से कोई लेनादेना नहीं होगा। 


ऑफसेट और रक्षा सौदों के सभी जानकार बार-बार राहुल गांधी के 30 हजार करोड़ रुपया अनिल अंबानी के पॉकेट में डालने के बयान पर हंसते हैं। उनकी पार्टी के लिए भी इस आरोप की रक्षा कठिन है, पर करें तो क्या। पार्टी के शीर्ष नेता के सुर में ताल तो मिलाना ही है। वर्तमान पत्र को ही देखिए। जिस अखबार ने उसे छापा उसने अधूरा छापा जो कि पत्रकारिता के मापदंड का उल्लंघन है। 24 नवंबर 2015 के उस पत्र या नोट का पूरा सच सामने आ गया है। 

उस पत्र में उप रक्षा सचिव एसके शर्मा ने प्रधानमंत्री कार्यालय के राफेल सौदे में बातचीत की चर्चा करते हुए कहा है कि इससे भारत और भारत के वार्ताकार दल की स्थिति कमजोर होगी। रक्षा सचिव की टिप्पणी है कि रक्षा मंत्री इसे देखें। इस पर तत्कालन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की टिप्पणी है कि यह अतिवादी प्रतिक्रिया में लिखा गया है।

 वे लिखते हैं- ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और फ्रांस का राष्ट्रपति कार्यालय शिखर वार्ता के फैसलों के अमल पर नजर रख रहा है। रक्षा सचिव इस मुद्दे को प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव के साथ चर्चा कर सुलझा सकते हैं। इस मामले में तत्कालीन रक्षा सचिव जी मोहन कुमार ने राहुल की बातों को यह कहते हुए खारिज किया कि रक्षा मंत्रालय का नोट केवल राफेल डील की गारंटी और सामान्य नियम-शर्तों को लेकर था। जो कुछ भी अब मीडिया रिपोर्ट में आया है, उसका कीमत से कोई संबंध नहीं है। यही सच है। 

कोई पूर्व अधिकारी किसी नेता के लिए अपमानजक भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। इसलिए सभ्य भाषा में उन्होंने जवाब दे दिया हैं। राफेल सौदे के लिए बनी भारतीय वार्ता दल के तत्कालीन प्रमुख एयर मार्शल एसबीपी सिन्हा ने भी तथ्यों के साथ सारे आरोपों की धज्जियां उड़ा दीं। 

एयर मार्शल सिन्हा कह रहे हैं कि रक्षा मंत्रालय के नोट का सिलेक्टिव इस्तेमाल किया जा रहा है जो गलत है। सिन्हा ने कहा कि मुझे यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ कि  प्रकाशित समाचार में तथ्यों को छिपाकर रक्षा मंत्रालय के नोट का इस्तेमाल इस खरीद को नुकसान पहुंचाने के लिए किया गया।

 एयर मार्शल ने आगे कहा कि नोट का राफेल खरीद के लिए बात कर रही भारतीय टीम के साथ कोई लेनादेना नहीं था क्योंकि इसे वार्ताकारों की टीम ने जारी नहीं किया था। उन्होंने कहा कि यह नोट एस के शर्मा ने तैयार किया था, जो भारतीय वार्ताकारों की टीम में शामिल ही नहीं थे। ऐसे में किसके इशारे पर उन्होंने यह नोट तैयार किया?

 वास्तव में अखबार की रिपोर्ट में डिसेंट का जिक्र है लेकिन इस नोट पर पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के जवाब की कोई बात नहीं की गई है। मीडिया की रिपोर्ट में ते यह भी दावा किया गया है कि रक्षा मंत्रालय को प्रधानमंत्री कार्यालय के दखल की जानकारी फ्रांस के वार्ता दल के प्रमुख जनरल स्टीफन रेब के एक पत्र से मिली। 

इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव और फ्रांस के रक्षा मंत्री के सलाहकार के बीच 20 नवंबर 2015 को फोन पर हुई बातचीत के जिक्र का भी दावा है। इसमें लिखा है कि इसके बाद रक्षा मंत्रालय और भारतीय वार्ता दल के प्रमुख एयर मार्शल एसबीपी सिन्हा  की ओर से प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर समानांतर वार्ता की जानकारी दी गई थी।  एअर मार्शल सिन्हा ने ऐसे कोई पत्र लिखने से इन्कार किया है। उन्होंने कहा है कि हमारे वार्ता दल को ऑफसेट से कोई लेना-देना भी नहीं था। 


किंतु राहुल गांधी का जो रवैया है उसमें उनके द्वारा गलती स्वीकार कर  विपक्ष के लिए उपयुक्त सकारात्मक राजनीति पर वापस लौटने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उन्होंने तो अपनी पत्रकार वार्ता के पहले देश के सैनिकों के नाम ही एक ट्वीट कर दिया। इसमें उन्होंने कहा कि देश के वीर सैनिक, आप हमारे रक्षक हो। आप देश के लिए अपनी जान तक देने को हमेशा तैयार रहते हो। आप गर्व हो हमारे। मेरी प्रेस वार्ता जरूर देखें। 

देश की सेना को तो अच्छी तरह पता है कि यूपीए सरकार में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए क्या किया गया था तथा वर्तमान सरकार क्या कर रही है। इसलिए उनके ट्वीट का कोई असर सेना पर होगा तो यही कि कांग्रेस के खिलाफ उनका गुस्सा और असंतोष और बढ़ेगा। वे सोचेंगे कि कांग्रेस का यह नेता देश की सेना को मजबूत होने नहीं देना चाहता। राहुल गांधी कह रहे हैं कि मोदी सरकार रॉबर्ट वाड्रा, पी चिदंबरम या किसी के भी खिलाफ जांच कराए, लेकिन राफेल घोटाले पर प्रधानमंत्री जवाब दें और कार्रवाई करें। 

राहुल गांधी क्या भूल गए कि कांग्रेस के छद्म लोग उच्चतम न्यायलय गए थे? उच्चतम न्यायालय ने सरकार से सौदे से संबंधित सारे दस्तावेज मांगे, उनका अध्ययन किया, वायुसेना के दो बड़े अधिकारियों को बुलाकर उनसे पूरी स्थिति समझी और इसके बाद लिखा कि उन्हें सौदे में कोई संदेह नजर नहीं आया। ऑफसेट में कुछ भी गलत नहीं लगा। वाड्रा या चिदम्बरम पिता-पुत्र की जांच और उनसे पूछताछ के साथ न्यायालय का आदेश है। अगर राहुल को जांच करानी है तो वे फिर न्यायालय जा सकते हैं। 


किंतु इन सबसे परे यह सोचिए कि आखिर देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी, जो अकेले या गठबंधन में सबसे ज्यादा समय शासन में रहा है। उसके नेता को इस तरह की राजनीति करनी चाहिए? उसे ऐसी गिरी हुई भाषा का उपयोग करना चाहिए? 

राहुल ने कहा कि क्या मोदी को स्किजोफ्रेनिया है? वे एक साथ दोहरे व्यक्तित्व के शिकार हैं। वे एक साथ चोर हैं और चौकीदार हैं। एक बार मुझे देखें और एक बार प्रधानमंत्री को देखें। आपको समझ आ जाएगा कि कौन घबराया हुआ है। अब इस तरह की भाषा का क्या उत्तर दिया जा सकता है। 

प्रश्न है कि राहुल गांधी ऐसा क्यों कर रहे हैं? ऐसा तो हो नहीं सकता कि उनको अब तक राफेल के सच का पता नहीं चला होगा। लगता है राहुल गांधी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की पूर्व राजनीति को धारण किया है। केजरीवाल तब इसी तरह नेताओं पर आरोप लगाते थे और दावा करते थे कि उनके पास इसके पूरे प्रमाण मौजूद हैं। उसके बाद वे दिल्ली विधानसभा चुनाव में सफल रहे। 

शायद राहुल गांधी को लगता होगा कि उसी रास्ते पर चलकर वे भी चुनाव में सफल हो सकते हैं। क्या संयोग है? राहुल की पत्रकार वार्ता के बाद केजरीवाल का भी बयान आ गया कि जिस तरह हमारे कार्यालय पर सीबीआई ने छापा मारा, कोलकाता के कमिश्नर के कार्यालय पर छापा मारा उसी तरह प्रधानमंत्री कार्यालय पर छापा मारा जाना चाहिए और राफेल सौदा से संबंधित सारे दस्तावेज जब्त होना चाहिए। 

जरा सोचिए, इस तरह के नेता हमारे देश के राजनीतिक क्षितिज पर छाए हुए हैं जिनको यह भी नहीं पता कि वो जो बोल रहे हैं उसका अर्थ क्या है और वह कितना हास्यास्पद और निंदनीय है। राहुल गांधी न भूलें कि केजरीवाल को एक-एक कर उन सभी नेताओं से लिखित में क्षमा मांगनी पड़ी जिनने इनके आरोपों के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा दायर कर दिया था। राहुल को यह भी समझना होगा कि भारत केवल दिल्ली नहीं है। एक महानगर राज्य के विधानसभा चुनाव में सफल हो जाना और देश के लोकसभा चुनाव में सफल होने में जमीन आसमान का अंतर है।

 इस तरह की नासमझ राजनीति से देशव्यापी सफलता पाने की उम्मीद करना बताता है कि न केवल राहुल बल्कि पूरी कांग्रेस पार्टी किस तरह दिशाहीनता का शिकार है। यह जानते हुए भी कि राहुल और उनके रणनीतिकार आधारहीन आरोपों की गंदगी उछालने की गैरजिम्मेवार राजनीति से बाज नहीं आने वाले हमारा सुझाव होगा कि जरा ठहरकर  सोचें कि आखिर ऐसा करके ये देश की रक्षा तैयारी ही नहीं लोकतंत्र का कितना नुकसान कर रहे है।

अवधेश कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। 
सामयिक मुद्दों को तथ्यों पर परखकर उनका सरल विश्लेषण कर देना उनकी खासियत है।