हमारे देश के पूर्व में स्थित बांग्लादेश को पहले पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। लेकिन वह पाकिस्तानी सेना के दमन की चक्की में पिस रहा था। बंगाली जनता पाकिस्तानियों की हत्या, उत्पीड़न, दमन और बलात्कार से तंग आ चुकी थी। लाखों की संख्या में बंगाली भारतीय सीमा में शरण लेने के लिए घुस रहे थे। 

जब पाकिस्तानियों के जुल्म का पानी सिर से उपर होने लगा तो भारत ने सैन्य हस्तक्षेप का फैसला किया। 3 दिसंबर 1971 को भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई। मात्र 13 दिन के बाद अंदर भारत की बहादुर फौज ने पाकिस्तानियों को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया। 

इस जंग में भारत पर हर ओर से दबाव था। अमेरिका ने भारत के खिलाफ अपने सातवें बेड़े को उतार दिया था। चीन की भी मदद पाकिस्तान को मिल रही थी।
 
ऐसे में भारत की मदद के लिए पीठ पर खड़ा था रुस। लेकिन वह अमेरिका की तरह सीधे तौर पर भारत की मदद नहीं कर रहा था। रुस की मदद सैन्य आपूर्ति तक सीमित थी। 

अमेरिका का सातवां बेड़ा पाकिस्तान की मदद के लिए रवाना हो चुका था। लेकिन उसके पहुंचने के पहले भारत की सेनाओं ने ढाका की तीन तरफ से घेरेबंदी कर ली और ढाका में गवर्नर हाउस पर बमबारी शुरु कर दी। 

जिस समय भारत का यह हमला हुआ, उस वक्त गवर्नर हाउस में पाकिस्तान के बड़े अधिकारियों की मीटिंग चल रही थी। ऐसे में भारतीय हमले की तीव्रता देखकर पाकिस्तानी जनरल नियाजी घबरा गया। उसने युद्ध विराम का संदेश भिजवाया। लेकिन भारतीय सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ से साफ कर दिया कि युद्ध विराम नहीं बल्कि पाकिस्तान को सरेंडर करना होगा। 

इस सरेंडर की जिम्मेदारी मानेकशॉ ने लेफ्टिनेन्ट जनरल जैकब को सौंपी। जिन्होंने इसपर अपनी प्रसिद्ध किताब ‘सरेंडर ऐट ढाका’ लिखी है।  

उन्होंने लिखा है कि 'मानेक शॉ ने मुझे फ़ोन किया, जैक जाओ और जा कर सरेंडर लो। जैकब ने कहा मैं आपको पहले ही आत्मसमर्पण का मसौदा भेज चुका हूं। क्या मैं उसके आधार पर पाकिस्तानियों से बात करूँ?  मानेकशॉ बोले तुम्हें मालूम है तुम्हें क्या करना है। बस तुम वहाँ चले जाओ। 

ले. जनरल जैकब वही दस्तावेज़ ले कर ढाका पहुंचे। पाकिस्तानी सेना ने एक ब्रिगेडियर को उन्हें रिसीव करने के लिए भेजा था। जैसे ही ले. जनरल जैकब पाकिस्तानी झंडा लगी कार में आगे बढ़े तभी मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने इस कार पर गोलियां चलानी शुरु कर दीं। 

ले. जनरल जैकब तुरंत कार का दरवाज़ा खोल कर चिल्लाए-  इंडियन आर्मी!

इसके बाद मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने फ़ायरिंग रोक दी। लेकिन वह कार में सवार पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को मार डालना चाहते थे। लेकिन लेफ्टिनेन्ट जनरल जैकब ने उन्हें समझाया। 

इसके बाद वह पाकिस्तानी जनरल नियाज़ी के दफ़्तर पहुंचे। जैकब ने उन्हें आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पकड़ाया तो नियाज़ी ने कहा ‘कौन कह रहा है कि मैं आत्मसमर्पण कर रहा हूं’?

तब जैकब ने नियाजी को अलग ले जाकर कहा ‘ हमनें आपको बहुत अच्छी शर्तें दी हैं। अगर आप हथियार डालते हैं तो हम आपका और आपके परिवार वालों का ध्यान रखेंगे। 

नियाज़ी ने कोई जवाब नहीं दिया। तब जैकब ने कहा मैं आपको सोचने के लिए तीस मिनट का समय देता हूं। इतना कहकर वह कमरे से बाहर आ गए। 

इन तीस मिनटों में लेफ्टिनेन्ट जनरल जैकब के दिलोदिमाग में झंझावात चलता रहा। वह सोच रहे थे कि ‘यह मैंने क्या कर दिया पाकिस्तानियों के पास ढाका में 26400(छब्बीस हज़ार चार सौ) सैनिक हैं। जबकि भारतीय फौजी मात्र 3000(तीन हज़ार) और वो भी ढाका से तीस किलोमीटर की दूरी पर। 

खैर आधे घंटे बाद जैकब फिर से नियाजी के कमरे में घुसे तो वहां पर सन्नाटा छाया हुआ था। आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था। 

लेफ्टिनेन्ट जनरल जैकब ने सोचा ' अगर ये ना कहते हैं तो मैं क्या करूंगा?  एक घंटे में वहाँ जनरल जसजीत सिंह अरोड़ा आने वाले थे। 

लेफ्टिनेन्ट जनरल जैकब ने पाकिस्तानी जनरल नियाज़ी से पूछा क्या आप आत्मसमर्पण की शर्तों को स्वीकार करते हैं? उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। 

जैकब ने तीन बार उनसे यही सवाल किया। तब भी कोई जवाब नहीं आया। 

तब जैकब ने आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ उठा लिए और कहा कि आपके जवाब ना देने का मतलब है कि आप इसे स्वीकार करते हैं।'

इसके बाद जनरल जसजीत सिंह अरोड़ा वहां पहुंचे और पाकिस्तानी जनरल नियाजी की समर्पण प्रक्रिया शुरु हुई। 

भारतीय नौसेना के एडमिरल कृष्णन ने अपनी किताब 'ए सेलर्स स्टोरी' में वहां के माहौल के बारे में विस्तार से बताया है। उन्होंने लिखा है कि ''ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक छोटी सी मेज़ और दो कुर्सियाँ रखी गई थीं जिन पर जनरल अरोड़ा और जनरल नियाज़ी बैठे थे। 

एडमिरल कृष्णन, एयर मार्शल दीवान जनरल सगत सिंह और जनरल जैकब पीछे खड़े थे। आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ की छह प्रतियाँ थीं जिन्हें मोटे सफ़ेद कागज़ पर टाइप किया गया था।

समर्पण के वक्त जैकब ने नियाज़ी से कहा कि वह सांकेतिक रुप से अपनी तलवार का सरेंडर करें। तब नियाज़ी ने कहा मेरे पास तलवार नहीं है। फिर ले.जनरल जैकब ने कहा फिर आप अपनी पिस्टल सरेंडर करें। 

 जब दस्तख़त करने का समय आया तो नियाज़ी के पास कलम नहीं थी। तब वहीं बैठे हुए ऑल इंडियो रेडियो के संवाददाता सुरजीत सेन ने अपनी कलम आगे बढ़ाई। 
इस दौरान दोनों जनरलों ने एक दूसरे से एक भी शब्द नहीं कहा। फिर नियाजी ने सरेंडर पेपर पर दस्तखत कर दिए। 

 पहले नियाज़ी ने दस्तख़त किए और फिर जनरल अरोड़ा ने।  पता नहीं जानबूझ कर या बेध्यानी में नियाज़ी ने अपना पूरा हस्ताक्षर नहीं किया और सिर्फ़ एएके निया लिखा। एडमिरल कृष्णन ने जनरल अरोड़ा का ध्यान इस तरफ़ दिलाया। अरोड़ा ने नियाज़ी से कहा कि वो पूरे दस्तख़त करें। जैसे ही नियाज़ी ने दस्तख़त किए बांग्लादेश आज़ाद हो गया। 

नियाज़ी की आखों में आँसू भर आए। उन्होंने अपने बिल्ले उतारे, पिस्तौल से गोली निकालकर उसे जनरल अरोड़ा को थमा दिया। फिर उन्होंने अपना सिर झुकाया और जनरल अरोड़ा के माथे को अपने माथे से छुआया, जैसे वो उनकी अधीनता स्वीकार कर रहे हों। 

दस्तख़त होते ही वहां मौजूद बांग्लादेश की जनता पाकिस्तानियों को मार डालने के लिए टूट पड़ी। लेकिन भारतीय सैनिकों ने जनरल नियाजी और उनके सैनिकों के चारों तरफ़ सुरक्षा घेरा बना दिया और फिर एक जीप में बैठा कर उन सभी एक सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। 

बांग्लादेशी जनता इसलिए पाकिस्तानियों को मार डालने पर आमादा थी क्योंकि 25 मार्च 1971 को शुरू हुए ऑपरेशन सर्च लाइट से लेकर पूरे बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के दौरान वहां करीब 30 लाख लोग मारे गए थे। पाकिस्तानी फौजियों ने बंगाली महिलाओं के साथ बर्बर बलात्कार किया था। इन घटनाओं से पूरी दुनिया दहल गई थी। 

1971 के दिसंबर महीने में ऑपरेशन चंगेज खान लांच करते हुए पाकिस्तान ने भारत के 11 एयरबेसों पर हमला कर दिया गया था। जिसके बाद 3 दिसंबर 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई। जिसके सिर्फ 13 दिन के बाद पाकिस्तान की 93 हजार फौज ने समर्पण कर दिया।

भारतीय सैन्य इतिहास में इसीलिए 16 दिसंबर का दिन सुनहरे अक्षरों में अंकित है। 

(इस आलेख के अंश जनरल जैकब की किताब ‘सरेंडर ऐट ढाका’ और एडमिरल कृष्णन की आत्मकथा 'ए सेलर्स स्टोरी' से लिए गए हैं।)