शुक्रवार के दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने दो बड़े ही महत्वपूर्ण फैसले किए। 

-    पहला तो यह, कि रुस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत आए और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात करके 39 हजार करोड़ की एस-400 डील पर मुहर लग गई।  
-    दूसरा यह कि भारत ईरान से 12.5 लाख टन कच्चा तेल मंगाने के लिए हुए एग्रीमेन्ट से पीछे नहीं हटेगा। 

यह दोनों ही खबरें प्रधानमंत्री मोदी की कूटनीति की परीक्षा थी। जिसमें वह सफलता पूर्वक पास हो गए। क्योंकि रुस और ईरान दोनों ही अमेरिका की ब्लैक लिस्ट में हैं। जिसपर उसने प्रतिबंध लगा रखा है। जो भी देश इन दोनों से संबंध बढ़ाता है उसे अमेरिका का कोपभाजन बनना पड़ता है। लेकिन भारत के मामले में ऐसा नहीं हुआ। 
 
भारत और रुस के बीच एस-400 डील होने के बाद अमेरिका ने एक बयान जारी किया। जिसमें ‘काटसा’ कानून के हवाले से कहा गया कि इसका मकसद रुस के रक्षा सेक्टर को सीमित करना है, ना कि अमेरिका के सहयोगियों की रक्षा क्षमताओं को नुकसान पहुंचाना। 

इस बयान का मकसद साफ तौर पर भारत को किसी तरह के प्रतिबंध की आशंकाओं से मुक्त करना था।

हालांकि अमेरिका को इसके लिए राजी करने की कोशिश पहले ही शुरु हो चुकी थी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने पिछले महीने भारत दौरे पर आए अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियों और रक्षा मंत्री जिम मैटिस को भारत का पक्ष समझाने में सफलता हासिल कर ली थी।    

सूत्रों के मुताबिक तर्क ये दिया गया था, कि एस-400 पर भारत और रुस के बीच चर्चा तब से चल रही है, जब ‘काटसा’ प्रभाव में आया ही नहीं था। भारत और रुस ने 2016 में एस-400 के लिए समझौता कर लिया था, जबकि ‘काटसा’ कानून पिछले साल प्रभावी हुआ है। 

अमेरिका ने रुस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी हितों के विरुद्ध जाने से रोकने के लिए काउंटरिंग अमेरिकन एडवर्सरीज थ्रू सैंकशन्स यानी CAATSA कानून बनाया था। जिसका मकसद रुस की आधुनिक डिफेन्स मिसाइल सिस्टम को नियंत्रण में रखना था। क्योंकि अमेरिका 2014 में रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला कर क्रीमिया पर कब्जा, सीरिया में फौजें भेजने और 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में दखल देने की खबरों से नाराज था। 

लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम की कूटनीतिक क्षमताओं के कारण ‘काटसा’ के इस कहर से भारत बचा रहा। 

इसके बाद आते हैं ईरान के मुद्दे की ओर।  शुक्रवार को ही भारत ने एक और अहम फैसला लेते हुए यह स्पष्ट कर दिया, कि अमेरिकी प्रतिबंध के बावजूद वह ईरान से 12.5 लाख टन कच्चा तेल खरीदने के अपने एग्रीमेंट(अनुबंध) पर कायम रहेगा। यही नहीं यह भी हो सकता है, कि इसके लिए भारत ईरान को अमेरिकी डॉलर की जगह भारतीय रुपए में पेमेंट करे। 

अमेरिका ईरान से बेहद नाराज है। वह चार नवंबर से ईरान से तेल खरीदने वाले देशों पर लगाए जाने वाले प्रतिबंध को लागू करने की घोषणा कर चुका है। अमेरिका यह साफ कर चुका है, कि नवंबर के बाद भी अगर कोई देश ईरान के साथ बिजनेस जारी रखता है, तो वो अमेरिका के साथ व्यापार नहीं कर पाएगा। 

इस प्रतिबंध का मकसद ईरान को सीरिया और इराक में संघर्षों में शामिल होने से रोकना और उसके बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को बाधित करना है। 

लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की रणनीति ने यहां भी रंग दिखाया। भारत दौरे पर आए अमेरिकी रक्षा मंत्री माइक पोम्पियो संकेत दे चुके हैं, इस मसले पर भी अमेरिका छूट देने पर विचार कर सकता है।  

ईरान और रुस जैसे अमेरिका के घोषित शत्रुओं के साथ भारत के बढ़ते संबंधों को जिस तरह से अमेरिका स्वीकार करने के लिए मजबूर हो रहा है, वह दिखाता है कि भारत की कूटनीति किस तरह सफल हो रही है। 

दरअसल दक्षिण एशिया में चीन के साथ अमेरिका के संबंध जिस तरह खराब हो रहे हैं। उसे देखते हुए भारत को बढ़ावा देना उसकी मजबूरी है। 

साउथ चाइना सी में तो पिछले दिनों अमेरिकी और चीनी युद्धपोत एक दूसरे से मात्र 41 मीटर की दूरी पर आ गए थे। इस क्षेत्र से दुनिया भर के कमर्शियल जहाज गुजरते हैं। यहां अपना प्रभाव जमाने के लिए चीन और अमेरिका दोनों वर्चस्व की लड़ाई में उलझे हुए हैं, जो कभी भी गंभीर रूप ले सकता है। 

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ऐसे हालातों में भारत की अहमियत अमेरिका के लिए बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी।  शायद मोदी सरकार अमेरिका की इसी जरुरत को भांपकर उसे भारत की रक्षा और उर्जा जरुरतों के बारे में सहमत करने में सफल हुई है। 

दिलचस्प यह है कि भारत सरकार की इस कामयाब रणनीति को वामपंथी विचारधारा के विश्लेषक उसकी नाकामयाबी करार दे रहे हैं। एक बड़े अंग्रेजी अखबार में लिखे गए अपने एक आर्टिकल में जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर कांति वाजपेयी यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, कि रूस से हुई एस-400 की डील को मोदी सरकार की विदेश नीति की नाकामी है। क्योंकि भारत अमेरिका के पाले से निकलकर फिर से रुस से रक्षा उपकरण खरीदने के लिए विवश हो गया है। 

लेकिन कांति वाजपेयी इस बात का कतई ध्यान नहीं देते कि कैसे मोदी सरकार की कूटनीति के चलते भारत अमेरिका और रुस दोनों से बराबरी के स्तर पर अपने संबंध बनाए रखने में सफल रहा है। जिसका सीधे तौर पर फायदा भी देखने को मिल रहा है। 

अमेरिका और भारत के संबंधों का दूसरा पक्ष यह है, कि अगर अमेरिका हमपर किसी तरह का प्रतिबंध लगाता है, तो भारत की विपक्षी पार्टियां इसे केन्द्र सरकार पर हमले का जरिया बना लेंगी और नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति सवालों के घेरे में आ जाएगी।  अमेरिका फिलहाल किसी सूरत में मोदी सरकार के सामने कोई मुश्किल नहीं खड़ी करना चाहता।

क्योंकि भारत में मजबूत और निर्णायक सरकार का बने रहना सिर्फ दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए बेहद जरुरी है।