आजादी से पूर्व तक अखिल भारतीय कांग्रेस द्वारा हर वर्ष 15 फरवरी को “तारापुर दिवस” मनाया जाता रहा है लेकिन आज़ादी के बाद सत्ता के स्वाद में हमारे नेता स्वतंत्रता शहीदों की शहादत को भूल गये और बड़े इतिहासकारों ने ‘तारापुर गोलीकांड’ के साहसिक कृत्यों को इतिहास में शामिल करना मुनासिब नहीं समझा।
15 फ़रवरी 1932 का वो बलिदानी दिन तारापुर ही नहीं समूचे भारतवर्ष के लिए गौरव का दिन है जब क्रांतिकारियों के धावक दल ने थाना पर तिरंगा फहराते हुए जान की बाजी लगा दी थी। राष्ट्रीय झंडा फहराने के क्रम में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दूसरा सबसे बड़ा बलिदान तारापुर की धरती ने अपने 34 सपूतों की शहादत दी थी।
वीर बलिदानियों की धरती तारापुर (मुंगेर,बिहार) में राष्ट्रवाद का अंकुर सन 1857 की ऐतिहासिक क्रांति के समय से ही फूटने लगा था और बंगाल से बिहार की विभाजन के बाद वह अपना आकार लेने लगा था। विभाजित बिहार में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था। इसका संचालन ढोल पहाड़ी से लेकर देवधरा पहाड़ी तक हुआ करता था।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तारापुर का हिमालय ‘ढोल पहाड़ी’ इन्डियन लिबरेशन आर्मी का शिविर था। जिसका संचालन क्रांतिकारी बिरेन्द्र सिंह करते थे जिनको क्रन्तिकारी भाई प्यार से बीरन दादा कहते थे। इनके प्रमुख सहायक डॉ भुवनेश्वर सिंह थे। यहां के शिविर में दर्जनों ऐसे क्रान्तिकारी थे जो अपने क्रांतिकारी नेता के एक इशारे पर देश की आजादी के लिए जान हथेली पर लेकर घूमते थे।
ढोल पहाड़ी शिविर का क्रांतिकारी दस्ता ब्रिटिश सरकार की मुखबिरी करने वाले गद्दारों को सजा देने के साथ-साथ गोला-बारूद-हथियार खरीदने के लिए इलाके के धनाढ्य लोगों से रुपये–पैसे की सहायता भी लिया करते थे। इस प्रकार जन-सहयोग से तारापुर में क्रांतिकारियों का दस्ता अपने तरीके से भारत की आजादी के लिए संघर्षरत था।
तारापुर में सेनानियों का दूसरा बड़ा केन्द्र संग्रामपुर प्रखंड के सुपौर जमुआ ग्राम स्थित ‘श्रीभवन’ से संचालित होता था। जहां उस वक्त कांग्रेस से बड़े-बड़े नेता भी आया करते थे। इसी केन्द्र से तारापुर “ तरंग “ और “ विप्लव “ जैसी क्रांतिकारी पत्रिका छपती थी। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, तारापुर के प्रथम विधायक वासुकी नाथ राय की कर्मभूमि तारापुर थी। उनके सहयोग में जयमंगल सिंह शास्त्री, दीनानाथ सहाय, हितलाल राजहंश, नंदकुमार सिंह, सुरेश्वर पाठक, भैरव पासवान, सूचि सिंह इत्यादि कांग्रेस के कार्यकर्ता तन-मन-धन से अपनी जान की बाजी लगाकर जुटे रहते थे।
इसी दौरान 1931 में हुआ गांधी–इरविन समझौता भंग होने के बाद जब कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर अंग्रेजों ने सभी कांग्रेस कार्यालय पर ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक टांग दिया। महात्मा गांधी, सरदार पटेल और राजेंद्र बाबू जैसे दिग्गज नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी की प्रतिक्रिया में युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीश्वर ने एक संकल्प पत्र कांग्रेसियों और क्रांतिकारियों के नाम जारी किया कि 15 फ़रवरी सन 1932 को सभी सरकारी भवनों पर तिरंगा झंडा लहराया जाए।
उनका निर्देश था कि प्रत्येक थाना क्षेत्र में पांच सत्याग्रहियों का जत्था झंडा लेकर धावा बोलेगा और शेष कार्यकर्त्ता दो सौ गज की दूरी पर खड़े होकर सत्याग्रहियों का मनोबल बढ़ाएंगे।
युद्धक समिति के प्रधान सरदार शार्दुल सिंह कवीश्वर के आदेश को कार्यान्वित करने के लिए सुपोर-जमुआ के ‘श्री भवन‘ में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं व अन्य क्रांतिकारियों की बैठक हुई जिसमें मदन गोपाल सिंह (ग्राम – सुपोर-जमुआ), त्रिपुरारी कुमार सिंह (ग्राम-सुपोर-जमुआ), महावीर प्रसाद सिंह(ग्राम-महेशपुर), कार्तिक मंडल(ग्राम-चनकी)और परमानन्द झा (ग्राम-पसराहा) सहित 500 सदस्यों का धावक दल चयनित किया गया। 15 फ़रवरी सन 1932 को तारापुर थाना भवन पर राष्ट्रीय झंडा तिरंगा फहराने के कार्यक्रम की सूचना पुलिस को पूर्व में ही मिल गयी थी। इसी को लेकर ब्रिटिश कलेक्टर मिस्टर ईओली और एसपी ए डब्ल्यू फ्लैग सशस्त्र बल के साथ थाना परिसर में मौजूद थे।
दोपहर 2 बजे धावक दल ने थाना भवन पर धावा बोला और अंग्रेजी सिपाहियों की लाठी और बेत खाते हुए अंततः धावक दल के मदन गोपाल सिंह ने तारापुर थाना पर तिरंगा फहरा दिया।
उधर दूर खड़े होकर मनोबल बढ़ा रहे समर्थक धावक दल पर बरसती लाठियों से आक्रोशित हो उठे। गुस्से से उबलते समर्थकों ने पुलिस बल पर पथराव शुरू कर दिया जिसमें कलेक्टर ईओली घायल हो गए और उसने पुलिस बल को निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। इस गोली काण्ड में पुलिस बल द्वारा कुल 75 चक्र गोलियां चली जिसमें बुजुर्गों के मुताबिक 50 से भी ज्यादा क्रान्तिकारी शहीद हुए एवं सैंकडों क्रान्तिकारी घायल हुए। गोलीकांड के तीन दिन बाद केवल 13 शहीद जिनकी पहचान हो पाई थी वो थे शहीद विश्वनाथ सिंह (छत्रहार), महिपाल सिंह (रामचुआ), शीतल (असरगंज), सुकुल सोनार (तारापुर), संता पासी (तारापुर), झोंटी झा (सतखरिया), सिंहेश्वर राजहंस (बिहमा), बदरी मंडल (धनपुरा), वसंत धानुक (लौढि़या), रामेश्वर मंडल (पड़भाड़ा), गैबी सिंह (महेशपुर), अशर्फी मंडल (कष्टीकरी) तथा चंडी महतो (चोरगांव) इसके अलावे 21 शव ऐसे मिले जिनकी पहचान नहीं हो पायी थी। और कुछ शव तो गंगा में बहा दिए गए थे। आज शहीदों की याद में तारापुर थाना के ठीक सामने खड़ा शहीद स्मारक भवन हमें इन सपूतों की याद दिलाता है।
गौरतलब है कि आजादी से पूर्व तक अखिल भारतीय कांग्रेस द्वारा हर वर्ष 15 फरवरी को “तारापुर दिवस” मनाया जाता रहा है लेकिन आज़ादी के बाद सत्ता के स्वाद में हमारे नेता स्वतंत्रता शहीदों की शहादत को भूल गये और बड़े इतिहासकारों ने ‘तारापुर गोलीकांड’ के साहसिक कृत्यों को इतिहास में शामिल करना मुनासिब नहीं समझा।
लेकिन सूचना क्रांति के इस युग में इंटरनेट दिनोदिन इतिहास के नए पन्ने जोड़ रहा है। लाखों –करोड़ों तथ्य जो छुपाये गए या नजरअंदाज किये गए वो आज सामने आ रहे हैं। गुमनाम बना दिए गए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से जुडी फाइलें आज वेबसाईट पर सबके लिए उपलब्ध कराई जा रही हैं। ठीक वैसे ही ‘तारापुर शहीद दिवस’ भी धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा है। 15 फरवरी 1932 के शहीदों की कहानी इंटरनेट के जरिये लाखों भारतीयों के मन में राष्ट्रवाद का अलख जगा रही है।
(लेखक तारापुर शहीदों के लिए आन्दोलन चला रहे हैं )
Last Updated Feb 14, 2019, 3:05 PM IST