सत्य डी सिन्हा की सफलता की कहानी: 60 रुपये से शुरू कर करोड़ों के साम्राज्य तक, जीवन भर काम आने वाली महत्वपूर्ण सीखों के साथ। जानिए कैसे उन्होंने हर चुनौती को पार किया और बिजनेस में सफलता हासिल की।
नयी दिल्ली। कुछ लोग मानते हैं कि बड़ा बिजनेस करने के लिए इंग्लिश बोलना आना चाहिए और पैसा होना जरूरी है। बिहार के समस्तीपुर के सत्य डी सिन्हा के पास न पैसे थे और न ही उन्हें अंग्रेजी बोलनी आती थी। बिजनेस में कई उतार-चढ़ाव देखें। कई बार तो लगा कि अब सारा खेल खत्म हो गया। पर हार नहीं मानी। फिर उठे और आगे बढ़ें। एक रास्ता बंद होता था तो दूसरे रास्ते मिलते। 25 साल की मेहनत के बाद आज उनकी रिक्रूटमेंट फर्म का करोड़ो का टर्नओवर है। देश भर में 100 प्रोफेशनल कंसल्टेंट काम करते हैं। साल भर में 1000 से 2000 लोगों को नौकरी दिलवाते हैं। उनकी सफलता की कहानी गजब की लर्निंग है। ऐसी सीख देती है, जो हर व्यक्ति के जीवन में काम आएंगे।
कई स्कूल बदले तो एडाप्टिबिलिटी सीखी
एक टॉक शो में सत्य डी सिन्हा कहते हैं की कक्षा 6 तक कई स्कूल बदलें। उससे एडाप्टिबिलिटी (अनुकूलता) सीखी। बचपन में गिल्ली—डंडा, कंचे खेलना, बरसात के दिनों में मछली मारना और कागज की नाव चलाना सबसे इंटरेस्टिंग काम था। फिर समस्तीपुर के एक स्कूल में दाखिला हुआ, जहां क्रिकेट, टेबल टेनिस और बैडमिंटन खेला। वह कहते हैं कि जीवन में सफलता और असफलता का अनुभव बचपन में खेलों से ही किया जा सकता है।
मेडिकल स्कैम की वजह से कॉपी गायब, लगा बड़ा झटका
उनका कहना है कि उस समय स्थानीय लोग आमतौर पर इंजीनियरिंग, सिविल सर्विस या मेडिकल के प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करते थे। पहली बार मेडिकल प्रवेश परीक्षा में असफल रहा। भौतिकी (फिजिक्स) कमजोर विषय था। दूसरी बार एग्जाम दिया, उस समय एक मेडिकल घोटाला हुआ था, जिसमें मेरी कॉपी गायब हो गई थी, जबकि मेरा पेपर बहुत बढ़िया हुआ था। यह मेरे जीवन का दूसरा बड़ा झटका था। मुझे लगा कि सब कुछ खत्म हो गया है। मेरी उम्मीदें टूट गईं। उसी समय मेरे जीजा ने मुझे दिल्ली आने और वहां से नई शुरुआत करने की सलाह दी।
छात्र संघ के चुनाव में कोलैबोरेशन का मतलब समझा
सत्य डी सिन्हा ने दिल्ली में पढ़ाई शुरू की और पहली बार सुना, "वो बिहारी!" यह सुनकर उन्हें बहुत बुरा लगा। दिल्ली में उस समय बिहारी लोगों को बहुत हीन भावना से देखा जाता था। दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया। स्नातक के दूसरे साल में छात्र संघ के चुनाव आने वाले थे। एक छात्र ने कहा कि साउथ कैंपस में बिहारी वोट बैंक नहीं है, इसलिए वहां से जीतना मुश्किल है। मैंने वहीं से शुरुआत करने का फैसला किया। वहां मुझे समझ में आया कि सहयोग (कोलैबोरेशन) क्या होता है और लोगों के साथ काम कैसे किया जाता है? भले ही मैं 10 वोट से हार गया, लेकिन तीसरे साल में कॉलेज का वाइस प्रेसीडेंट बन गया।
60 रुपये पर संस्कृत पढ़ाया
एक दिन वह एक एसटीडी बूथ से समस्तीपुर फोन कर रहे थे, तब किसी ने उनसे पूछा कि क्या वह संस्कृत पढ़ा सकते हैं। वह कहते हैं कि 60 रुपये महीने से अपने करियर की शुरुआत की। तीन साल तक खुद को इस काम में बनाए रखा। फिर नौकरी की तलाश की और एक रिक्रूटमेंट फर्म में काम करने लगा। जल्द ही उन्हें एक अन्य फर्म से 5000 रुपये की बजाय 6000 रुपये का ऑफर मिला, उसे ज्वाइन कर लिया। तीन महीने बाद उस फर्म ने कहा कि वह सैलरी नहीं दे सकते।
नया अवसर खोजने का विकल्प चुना
सत्य डी सिन्हा कहते हैं कि अब मेरे पास या तो दूसरी नौकरी ढूंढने या अपने लिए एक नया अवसर खोजने का विकल्प था। मैंने अपने बॉस से कहा कि वे मुझे अपनी जगह और कंप्यूटर दे दें, और मैं जो भी कमाऊंगा, उसका आधा हिस्सा दूंगा। इस तरह 1997 में मेरे इंटरप्रेन्योरशिप की जर्नी शुरू हुई। उस छोटी सी फर्म में 4 साल में मैंने एचआर से लेकर फाइनेंस तक का काम सीखा।
तीन पार्टनर ने मिलकर शुरू किया काम
वह अपना बिजनेस चला रहे थे। पर एक समय ऐसा आया। जब लगा कि यह जगह भी छूट सकती है। तब उनके एक क्लाइंट का आफर आया कि उनकी कम्पनी बंद होने के कगार पर है। क्या वह उनकी कंपनी में बिजनेस डेवलपमेंट का काम कर सकते हैं। फिर उन्होंने तीन पार्टनर के साथ इंडिपेंडेंड इंटरप्रेन्योरशिप की शुरूआत हुई। यह यात्रा देखने में सरल लगती है, लेकिन इसमें कई चुनौतियाँ थीं। 2001 में कर्ज लिया, जबकि उनका कोई फैमिली बैकग्राउंड नहीं था। खर्चे कम करने के लिए कंपनी को जियासराय में शिफ्ट किया गया।
2006 में मिला मौका, ब्रांड बनी कम्पनी
वह कहते हैं कि हमारा मूल सिद्धांत था कि अगर हम क्वालिटी सर्विस देंगे तो सफलता मिलेगी। कई बार ऐसे मौके आए जब हमें लगा कि हमें यह बिजनेस छोड़कर कुछ और करना चाहिए, लेकिन हमने अपने बिजनेस में डटे रहे। 2006 में जब जेनपैक्ट ग्रो कर रही थी, तो उन्हें बहुत मैनपावर की जरूरत थी। हमने उस समय 100 से 200 लीडरशिप हायरिंग्स क्लोज कीं। तब हमारी कंपनी एक ब्रांड बन चुकी थी और लोग हमें जानने लगे थे।
अलग-अलग सेक्टर्स में काम कर टिके रहें
उनके मुताबिक, साल 2008 में मार्केट में कठिनाइयां आईं, लेकिन हमने अलग-अलग सेक्टर्स में काम शुरू कर दिया था, इसलिए टिके रहना आसान हो गया। 2014 से 2018 का समय सबसे अच्छा रहा। हमने शिकागो, लंदन, मनीला, और सिंगापुर में ऑफिस खोले। सोचा कि हमें अपना रेवेन्यू बढ़ाना है, लेकिन हमने अपने बॉटम लाइन पर ध्यान नहीं दिया। टॉप लाइन बढ़ाने के चक्कर में हमने कर्ज ले लिया। उसी समय एक शख्स ने कहा कि यदि आप अपना पैसा मेरे कहने पर इंवेस्ट कीजिए तो अच्छ इनकम होगी। बाद में वह शख्स दिवालिया हो गया।
कैश फ्लो का ध्यान न रखना सबसे बड़ी कमी
सिन्हा कहते हैं कि अब हमारे ऊपर बैंक लोन था, पैसे डूब चुके थे और कंपनी संघर्ष कर रही थी। हमने महसूस किया कि शायद दूसरे लोग हमारा पैसा नहीं बना सकते। हमने कैश फ्लो की अपेक्षा एक्सपेंशन पर ध्यान दिया, लेकिन कैश फ्लो का ध्यान न रखने से बिजनेस कभी भी क्रैश हो सकता है। 2018 में हमने भारत के बाहर के सभी लोकेशन्स बंद कर दिए और 100 लोगों के साथ कंपनी की दोबारा शुरुआत की। 2018 से 2020 तक सारे लोन चुका दिए।
कोविड के बाद मुनाफा
2020 में कोविड आ गया। हम बहुत डरे हुए थे कि अब क्या होगा। कोविड में हमने वर्क फ्रॉम होम का सिस्टम लागू किया। 2020 और 2021 में सबको सैलरी दी। उसके बाद वर्चुअल वर्ल्ड का दौर शुरू हो चुका था। 2021 और 2022 हमारे लिए बड़े अवसर साबित हुए। रिक्रूटमेंट इंडस्ट्री में लोगों ने 200 प्रतिशत तक मुनाफा कमाया। कोविड ने हमें एक अवसर दिया।
शून्य से करोड़ों का व्यापार
वह कहते हैं कि अगर आप कॉस्ट को ध्यान में रखते हुए चलते हैं, तो यह आपके लिए बहुत फायदेमंद साबित हो सकता है। इसके बाद हमने कंपनी को फिर से ग्रो किया। आज फिर मार्केट स्लो है, लेकिन हमें विश्वास है कि हम अपनी कंपनी को और आगे बढ़ाएंगे, क्योंकि मेहनत और धैर्य से आप कुछ भी पा सकते हैं। शून्य से करोड़ों का व्यापार खड़ा किया है, व्यक्ति को कभी हार नहीं माननी चाहिए। हमेशा प्रयास करते रहना चाहिए।