सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर के विवादित स्थल सहित 67.703 एकड़ भूमि का अधिग्रहण करने संबंधी 1993 के केंद्रीय कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली नयी याचिका पर इस संबंध में पहले से ही लंबित मामले के साथ विचार किया जाएगा।

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने इस मुद्दे को लेकर नई याचिका को मुख्य याचिका के साथ ही संलग्न करने का आदेश दिया। पीठ ने कहा कि इस याचिका को उसी पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाए जो इस मसले पर पहले से विचार कर रही है।

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यह याचिका लखनऊ के दो वकीलों सहित 7 व्यक्तियों ने दायर की है। याचिका में स्वयं को राम लला के भक्त होने का दावा करने वाले याचिकाकर्ताओं ने दलील दी है कि राज्य की भूमि का अधिग्रहण करने के लिए कानून बनाने में संसद सक्षम नहीं है।

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याचिका में कहा गया है कि वैसे भी सिर्फ राज्य सरकार को ही अपने प्रदेश के भीतर धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन से संबंधित मामलों के लिये प्रावधान करने का अधिकार है। 
वकील शिशिर चतुर्वेदी और संजय मिश्रा तथा अन्य ने याचिका में कहा था कि अयोध्या के कतिपय क्षेत्रों का अधिग्रहण कानून, 1993 संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रदत्त हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों और उनके संरक्षण का अतिक्रमण है।

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इस याचिका से एक सप्ताह पहले 29 जनवरी को केंद्र ने एक याचिका दायर करके सुप्रीम कोर्ट से उसके 2003 के फैसले में सुधार करने और अयोध्या में विवादित ढांचे के आसपास की गैर विवादित 67 एकड़ भूमि उनके असली मालिकों को लौटाने की अनुमति देने का अनुरोध किया था। 

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बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने याचिका में कहा था कि अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को कार सेवकों द्वारा विवादित ढांचा गिराए जाने से पहले यह 2.77 एकड़ के विवादित परिसर के अंदर 0.313 भूखंड पर स्थित था। सरकार ने 2-77 एकड़ के भूखंड सहित 67.703 एकड़ भूमि का एक कानून के माध्यम से अधिग्रहण कर लिया था। इसमें 42 एकड़ गैर विवादित वह भूमि भी शामिल थी जिसका स्वामित्व राम जन्म भूमि न्यास के पास है।
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