प्रधानमंत्री ने दी चंद्रशेखर आजाद को श्रद्धांजली, जानें क्यों डरते थे अंग्रेज उनसे

 |  First Published Jul 23, 2018, 4:56 PM IST

प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर कहा कि 'मैं भारत माता के एक बहादुर पुत्र और देश के नागरिकों को उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने जीवन का बलिदान करने वाले चंद्रशेखर आजाद को नमन करता हुं।

“मैं आजाद हूँ, आजाद रहूँगा और आजाद ही मरूंगा” यह नारा था भारत की आजादी के लिए अपनी जान को कुर्बान कर देने वाले देश के महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद का। मात्र 24 साल की उम्र जो युवाओं के लिए जिंदगी के सपने देखने की होती है उसमें चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हो गए।

आज उनकी जयंती है इस अवसर पर पीएम मोदी ने उन्हे श्रद्धांजली दी और याद किया। प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर कहा कि 'मैं भारत माता के एक बहादुर पुत्र और देश के नागरिकों को उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने जीवन का बलिदान करने वाले चंद्रशेखर आजाद को नमन करता हुं।

पंडित चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म एक आदिवासी ग्राम भावरा में 23 जुलाई, 1906 को हुआ था। उनके पिता पंडित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के बदर गाँव के रहने वाले थे। भीषण अकाल पड़ने के कारण वे अपने एक रिश्तेदार का सहारा लेकर 'अलीराजपुर रियासत' के ग्राम भावरा में जा बसे थे। इस समय भावरा मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले का एक गाँव है।

चन्द्रशेखर जब बड़े हुए तो वह अपने माता–पिता को छोड़कर भाग गये और बनारस जा पहुँचे। उनके फूफा जी पंडित शिवविनायक मिश्र बनारस में ही रहते थे। उन दिनों बनारस में असहयोग आंदोलन की लहर चल रही थी। विदेशी माल न बेचा जाए, इसके लिए लोग दुकानों के सामने लेटकर धरना देते थे। एक दिन पुलिस ने उन्हे पकड़ लिया और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया तब मजिस्ट्रेट ने उनसे पूछना शुरु किया तो उनका जवाब सुनकर कोर्ट रुम में मौजूद हर व्यक्ति

हैरान रह गया।
"तुम्हारा नाम क्या है?"
"मेरा नाम आज़ाद है।"
"तुम्हारे पिता का क्या नाम है?"
"मेरे पिता का नाम स्वाधीन है।" 
"तुम्हारा घर कहाँ पर है?"
"मेरा घर जेलखाना है।"

मात्र 14 साल के बच्चे के मुख से इस तरह की बात सुनकर अंग्रेज मजिस्ट्रेट चिढ़ गया और उसने चन्द्रशेखर को पन्द्रह बेंतों की सजा सुना दी। चन्द्रशेखर को जब बेंतों से मारा जा रहा था उस समय भी उनके मुख से भारत माता की जय के उद्घोष निकल रहे थे। साजा मिलने के बाद जब चन्द्रशेखर बाहर आए तो बनारस के लोगों ने उनका अभिनन्दन किया और यहीं से उनका नाम पड़ा चन्द्रशेखर आजाद।
जब क्रांतिकारी आंदोलन उग्र हुआ, तब आजाद उस तरफ खिंचे और 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट आर्मी' से जुड़े। रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी षड्यंत्र (1925) में सक्रिय भाग लिया और पुलिस की आंखों में धूल झोंककर फरार हो गए।
 
इसी बीच पंजाब के महान क्रांतिकारी लाला लाजपत राय साइमन कामिशन का विरोध करते समय पुलिस की लाठी से घायल होकर शहीद हो गए। लाजपत राय की मौत ने आजाद को अंदर तक झकझोर दिया औऱ उन्होंने इसका बदला लेने की ठानी। 

17 दिसंबर, 1928 को चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को घेर लिया और ज्यों ही साण्डर्स मोटर साइकिल पर बैठकर बाहर निकला आजाद और उनके साथियों उसे मौत की नींद सुला दी। 

इतना ना ही नहीं लाहौर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए, जिन पर लिखा था- लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया है। उनके इस कदम से अंग्रेज परेशान हो गए और उन्हे पकड़ने के लिए योजना बनाने लगे। 
चंद्रशेखर आजाद एक दिन अपने एक मित्र के साथ इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में बैठे थे तभी किसी गद्दार की सूचना पर पुलिस ने पार्क को चारों तरफ से घेर लिया। आजाद ने अपने मित्र को वहां से निकलने के लिए कहा और स्वयम अंग्रेजो से लोहा लेने लगे। 

एक तरफ सौ से ज्यादा अंग्रेज सिपाही और दूसरी तरफ अकेले आजाद लेकिन अंत में चंद्रशेखर आजाद के पिस्तौल में केवल एक गोली बची थी। आजाद ने जिन्दा अंग्रेजों के हाथ नहीं आने का संकल्प लिया था इस कारण उस आखिरी गोली से अपना जिवन समाप्त कर लिया।                                

चन्द्रशेखर आज़ाद की मौत के बाद पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे।  आज भले ही चंद्रशेखर आजाद हमारे बीच नहीं हैं लेकिन भारत माता के इस अमर बलिदानी सपूत को याद कर हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है।


 

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