नई दिल्ली: इस बार सावन का महीना 17 जुलाई से शुरू हो गया है। सावन शिवरात्रि इस साल 30 जुलाई को मनाई जाएगी। इस बार श्रावण मास में चार सोमवार पड़ रहे हैं, जो कि बेहद शुभ माने जाते हैं। 22 जुलाई, 29 जुलाई, 5 अगस्त और 12 अगस्त को सावन के सोमवार के दिन भगवान शिव की विशेष पूजा की जाएगी। सावन के महीने में ही भाई बहन का प्रसिद्ध रक्षाबंधन और नागपूजन के लिए समर्पित नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है। 

सावन में कांवड़ यात्रा की होती है शुरुआत
सावन के महीने में कांवड़ यात्रा की शुरुआत होती है। इसमें दूर दूर से शिवभक्त गंगाजल लाकर भगवान शिव के विग्रह या शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। कहा जाता है कि ऐसे करने से भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है। 

यही वजह है कि सावन के महीने में लाखों की संख्या में कांवड़िए गंगाजल लाकर भगवान शिव पर अर्पित करते हैं। 

जगदंबा माता पार्वती को भी बेहद प्रिय है सावन का महीना
भोलेनाथ को सावन का महीने बेहद प्रिय है। इस महीने में भगवान से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है। खास तौर पर छोटे बच्चों और कुमारी युवतियों को इस महीने में जरुर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। क्योंकि भगवान आशुतोष स्त्रियों और बच्चों पर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। 

दरअसल सावन के महीने में ही माता पार्वती की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिया था और उन्हें पत्नी के रुप में स्वीकार किया था। इसीलिए सावन का महीना शिव और पार्वती दोनों को बेहद प्रिय है। इसी महीने में शिव और शक्ति के मिलन की आधारशिला रखी गई थी। 

यही वजह है कि सावन के महीने में भगवान शिव अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। इसके अलावा सनातन धर्म की प्रचलित मान्यताओं के मुताबिक सावन के महीने में व्रत रखने वाली लड़कियों को भगवान शिव के आशीर्वाद से मनचाहा जीवनसाथी मिलता है। इसके अलावा इस महीने में भगवान शिव का रुद्राभिषेक करने से भक्तजनों को पद, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य जैसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। 

सावन के महीने में गंगाजल से क्यों किया जाता है भोलेनाथ का अभिषेक
सावन महीने के साथ भगवान शिव और सृष्टि से जुड़ी एक अहम कथा भी है। जो कि यह बताती है कि कैसे संसार की रक्षा के लिए भगवान शिव ने वह कर दिया जिसे कोई और नहीं कर सकता था। 

प्राचीन ग्रंथों में बताई गई कथाओं के मुताबिक एक बार देवताओं और दानवों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र का मंथन किया। उनका लक्ष्य समुद्र की निधियों में शामिल लक्ष्मी, शंख, कौस्तुभ मणि, ऐरावत हाथी, पारिजात का पेड़, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कामधेनु गाय, रम्भा और उर्वशी जैसी अप्सराएं, औषधियां और वैद्यराज धनवन्तरि, चंद्रमा, कल्पवृक्ष, वारुणी मदिरा और अमृत हासिल करना था। 
लेकिन जैसे ही समुद्र मंथन शुरु हुआ, तो पहले निकला भीषण कालकूट विष। जिसकी ज्वाला से पूरा विश्व तपने लगा। देवता, दानव, मनुष्य, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, पशु, पक्षी समेत सभी प्राणी  व्याकुल  हो गए।

अमृत मंथन कर रहे देवों और दानवों के प्राणों पर भीषण संकट आ पड़ा। क्योंकि उन्होंने विभूतियां हासिल करने का सपना तो देख लिया था। लेकिन विष का उपाय तलाश नहीं किया था।  
हारकर पूरी सृष्टि के प्राणियों ने देवाधिदेव महादेव की शरण ली। जिन्होंने संसार की रक्षा के लिए भयानक कालकूट विष को अपने अंदर समाहित कर लिया। उन्होंने अपना मुंह खोलकर पूरा विष पी लिया। इस दौरान उनकी पत्नी माता पार्वती ने उनका गला पकड़कर विष को नीचे उतरने से रोका। 

क्योंकि भगवान शिव के शरीर में पूरी सृष्टि समाहित थी। अगर विष नीचे उतरता को संपूर्ण सृष्टि का विनाश हो जाता। भगवान ने माता पार्वती और योगबल के विष को अपने गले में केन्द्रित कर लिया। जिसकी वजह से उनका कंठ नीला पड़ गया। इसी कारण के भगवान शिव का एक नाम नीलकंठ भी पड़ता है। 

लेकिन इस विष की ज्वाला से भगवान बेचैन हो गए। उनकी हालत को देखते हुए भक्तों और देवताओं ने उनपर शीतल जल की वर्षा की। इसलिए सावन के महीने में इंद्रदेव रिमझिम फुहारें बरसाकर भगवान शिव के विष की ज्वाला को कम करते हैं। वहीं मनुष्य अपनी क्षमता के मुताबिक भोलेनाथ पर जल अर्पित करके उनके विष के दाह को कम करने की कोशिश करते हैं। 

सावन के महीने में मनाई जाती है नागपंचमी
भगवान शिव और सर्पों का संबंध बेहद पुराना है। इस संबंध की कथा भी भगवान शिव के विषपान से ही जुड़ी हुई है। दरअसल भोलेनाथ ने समुद्र मंथन से निकले जिस कालकूट विष का पान किया था। उसमें से कुछ बूंदे नीचे गिर गई। तब भगवान शिव के आदेश से उनके शरीर पर मौजूद सर्प, बिच्छू और दूसरे कीड़े मकोड़ों ने विष की इस अल्प मात्रा को ग्रहण किया।

जिसकी वजह से इन सभी जीवों में आज भी विष की मात्रा पाई जाती है। 

भगवती तारा ने भगवान शिव को दुग्धपान करा के उनके विषदाह का पूरी तरह शमन किया
सावन के महीने से ही भगवती तारा की कथा भी जुड़ी हुई है। वैसे तो भगवान शिव को अजन्मा और अविनाशी माना जाता है। उनकी कोई माता या पिता नहीं है। लेकिन आदिशक्ति के एक स्वरुप तारा यानी तारिणी ने विष के प्रभाव से व्याकुल हुए भगवान शिव को मातृरुप में आकर अपना अमृतमय दूध पिलाया था। जिसकी वजह से उनके विष का दाह पूरी तरह खत्म हुआ था। 

भगवती तारा को दश महाविद्याओं में सबसे पहला माना जाता है। उनका स्थान महाकाली से भी पहले है। उन्हें शिव की माता के रुप पूजा जाता है। 

मां तारा का प्रसिद्ध मंदिर पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में एक श्मशान में स्थित है।