भेदभाव के नाम पर सबरीमला की परंपरा से छेड़छाड़ गलत

सुप्रीम कोर्ट के फैसले और इसे राज्य सरकार द्वारा हिंदू समुदाय में बिखराव की संभावनाओं के तौर पर देखे जाने से केरल में बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। हजारों लोग खुलकर प्रदर्शन कर रहे हैं। हिंदू महिलाएं आगे बढ़कर इन प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रही हैं। वे इसे अपनी आस्था और परंपराओं में असंवेदनशील हस्तक्षेप की नजर से देख रहे हैं। 

To reduce age old Sabrimala tradition is wrong, unfortunate and dangerous

2018 मेरा 25वां साल होता जब मैं एक वार्षिक परंपरा को निभाने सबरीमला पहुंचता और देव अय्यपा की पूजा करता। ये सिलसिला तब शुरू हुआ, जब मैं तरुण था। मेरे अमेरिका रहने के दौरान यह सिलसिला कुछ समय के लिए थमा लेकिन नब्बे के दशक में भारत लौटने के बाद फिर शुरू हो गया। 18 से ज्यादा बार ऐसा करने से मैं गुरुस्वामी हो गया हूं। इस साल पहले अगस्त/सितंबर में आई बाढ़ के चलते मैं नहीं जा पाया और अब सबरीमला के भक्तों की ओर से चल रहे प्रदर्शनों से इसमें व्यवधान आ गया। 

केरल के कई मंदिरों की तरह सबरीमला में भी अनेक अनोखी मान्यताएं, परंपराएं और पद्धतियां हैं। इनमें से एक यह है कि सबरीमला मंदिर महीने में सिर्फ पांच दिन के लिए खुलता है। इसकी शुरुआत प्रत्येक मलयाली माह के पहले दिन से होती है। दूसरी परंपरा यह है कि यहां सभी आयुवर्ग के पुरुष पूजा कर सकते हैं। मंदिर की परंपरा के अनुसार, यहां 10 साल की आयु से अधिक और 50 साल से कम उम्र की महिलाओं के प्रवेश करने की मनाही है। 

पिछले कई वर्षों में लाखों भक्तों के साथ मैं भी स्वामी अय्यपा का नाम लेते हुए पहाड़ पर पैदल चला हूं। छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, सभी के लिए पहाड़ पर चढ़ने का रास्ता एक ही है। इसे लेकर कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। अगर कुछ साल पहले मैं अपनी मां को सबरीमला ले गया होता तो यह मेरे द्वारा निभाई गई एक बड़ी जिम्मेदारी होती। 

लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले और इसे राज्य सरकार द्वारा हिंदू समुदाय में बिखराव की संभावनाओं के तौर पर देखे जाने से केरल में बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। हजारों लोग खुलकर प्रदर्शन कर रहे हैं। हिंदू महिलाएं आगे बढ़कर इन प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रही हैं। वे इसे अपनी आस्था और परंपराओं में असंवेदनशील हस्तक्षेप की नजर से देख रहे हैं। 

अय्यपा और सबरीमला से कोसों दूर बैठकर इसकी परंपराओं को महिलाओं से भेदभाव के छोटे से दायरे में देखा जा रहा है। हां, आस्था और संविधान पर बहस होना जरूरी है। बल्कि समय के साथ सुधार के लिए आस्थाओं को चुनौती दी जानी भी चाहिए। ये बढ़नी भी चाहिए। हमने तीन तलाक, मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश के मामले में ऐसा देखा है। इसलिए ये सवाल स्वाभाविक है कि यहां क्यों नहीं? संविधान में धार्मिक अधिकारों और भेदभावरहित अधिकार निर्धारित किए गए हैं। सवाल यह है कि मेरी राजनीतिक मान्यता महिलाओं और सभी के साथ समानता के विचार पर आधारित है तो मैं इसका विरोध क्यों कर रहा हूं?

इसका उत्तर बहुत आसान है - यह सबकुछ भेदभाव से जुड़ा नहीं है। यह उन सभी महिलाओं और पुरुषों की आस्था से जुड़ा है, जो भगवान अय्यपा की पूजा करते हैं। इसलिए जब इस पर बहस का स्वागत हो रहा है, हमें सावधानी बरतनी चाहिए और इसमें शामिल होने से पहले रिसर्च करनी चाहिए। शुरू से ही ज्यादातर हिंदू परंपराओं और मंदिरों का दस्तावेजीकरण नहीं हुआ। ज्यादा पुराने धर्म नहीं होने के चलते ईसाइयत और इस्लाम दोनों ही ज्यादा संहिताबद्ध यानी कोडिफाई हैं। हजारों वर्षों से हिंदू परंपराएं किवदंतियों के आधार पर और जुबानी आगे बढ़ती रहीं। यह तथ्य चीजों को और भी जटिल इसलिए बनाता है क्योंकि प्रत्येक हिंदू देवी-देवता के लिए अलग परंपराएं और विधियां हैं। ईसाइयत और इस्लाम में उनके प्रार्थनास्थल पूजा की प्रभावशाली जगह हैं। वहीं हिंदू मंदिर देवताओं के निवास स्थान हैं। इसलिए मुस्लिम मस्जिद में नमाज पढ़ने जाते हैं, जबकि हिंदू धर्म में माना जाता है कि भगवान मंदिर में वास करते हैं। यही हिंदुओं के पूजा स्थलों और दूसरे धर्मों के पूजा स्थलों के बीच का मूलभूत अंतर है। कई ऐसे मंदिर भी हैं जहां पुरुषों को  प्रवेश की इजाजत नहीं है। इनमें सिर्फ महिलाओं को ही पूजा करने की अनुमति है। ऐसा इसलिए हैं क्योंकि अनुष्ठान उस देवता विशेष से जुड़ा है। 

सबरीमला की परंपरा से पितृसत्ता या कहें महिलाओं से भेदभाव के नाम पर छेड़छाड़ करना गलत, दुर्भाग्यपूर्ण और खतरनाक है। लाखों भक्त इसे हिंदू धर्म के साथ छेड़छाड़ के तौर पर देखते हैं। यही वजह है कि इस संबंध में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कई तरह की कमियां नजर आती हैं। यह जल्दबाजी और दिल्ली में प्रचलित  भावनाओं से प्रभावित नजर आता है। इसमें मुद्दे की ठोस पड़ताल की कमी दिखती है। यह उस उद्देश्य के चारों तरफ बुना प्रतीत होता है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के तीन तलाक पर दिए गए फैसले और इस फैसले में समानता देखी जा रही है, जबकि यह गलत है। इस संबंध में जनहित याचिकाएं उस समूह द्वारा दायर की गई, जो वास्तव में प्रभावित पक्ष नहीं है। वे अय्यपा के भक्त नहीं हैं बल्कि कुछ ऐसे वकील हैं, जिनके कथित संबंध वामपंथियों से हैं। इस संबंध में प्रतिवादी केरल की सरकार और देवस्वम बोर्ड याचिकाकर्ताओं से समर्थन के लिए राजनीतिक तौर पर प्रतिबद्ध थे। इसलिए उन्होंने अदालत में सबरीमला की परंपरा का न के बराबर बचाव किया। वहीं सबरीमला की परंपरा और आस्था के संरक्षण के लिए प्रयास करने वाले हिंदू भक्तों ने पाया कि उनकी याचिकाओं में उठाए गए मामलों का सुप्रीम कोर्ट द्वारा बहुमत से दिए गए फैसले में जवाब नहीं दिया गया। असहमत जज जस्टिस इंदु मल्होत्रा अपने फैसले में इसलिए सही थीं क्योंकि उन्होंने हिंदू परंपरा में हस्तक्षेप के प्रति चेताया था। 

केरल के हिंदुओं का क्रोध और पीड़ा वास्तविक एवं गहरी है। उनमें यह भावना है कि परंपरा और आस्था में ऐसे लोगों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है, जिनकी इसमें न तो कोई हिस्सेदारी है या फिर जिन्होंने इसे समझने का कोई प्रयास नहीं किया। जो इसकी अनदेखी कर रहे हैं, वे एक अक्षम्य और खतरनाक भूल कर रहे हैं। मौजूदा वामपंथी सरकार की बांटने वाली और तुष्टिकरण की राजनीति मौजूदा हालात के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। मैं उम्मीद करता हूं कि मुख्यमंत्री सही कदम उठाएं और यह सुनिश्चित करें कि इस फैसले की न्यायिक समीक्षा हो। 

आस्था और धर्म से जुड़े मुद्दों में गैर-रूचि वाले पक्षकारों को जनहित याचिका दायर करने की अनुमति देकर पूर्व चीफ जस्टिस ने गंभीर भूल की। अगर मुस्लिम याचिकाकर्ता भेदभाव के खिलाफ अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाती हैं तो अदालत को उन्हें जरूर सुनना चाहिए। इसी तरह अगर भगवान अय्यपा की महिला भक्त अदालत में याचिका देने वालों में शामिल होती तो कोर्ट को इसे जरूर देखना चाहिए था। कल्पना कीजिए इस फैसले ने कितनी विस्फोटक स्थिति बना दी है। अगर कोई ईसाई अथवा हिंदू याचिकाकर्ता बहुविवाह, हिजाब और इस्लाम के ऐसे पहलुओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाए जो हिंदुओं और ईसाइयों को पसंद नहीं हैं। मेरे मन में इस बात को लेकर जरा भी संदेह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट को इस मुद्दे को फिर से देखने की जरूरत है। केरल के हिंदू और अय्यपा के सभी भक्त इसके पात्र हैं। 

स्वामी शरणम्

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